क्या चाउ की मक्कारियों से प्रेरित हैं शी जिनपिंग ?

"सत्ता बंदूक की नली से ही निकलती है" 
ऐसा कहने वाले और अपने मन में 
भारत के प्रति अपार घृणा रखने वाले 
माओत्से तुंग की राह पर हैं चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ! 

धर्म नगरी / DN News ट्वीटर- @DharmNagari   
भारत-चीन के बीच हुए 1962 के युद्ध के बारे में रूसी राष्ट्रपति खुश्चैव को पहले था भारत को मिग युद्धक विमानों की सप्लाई के लिए तत्कालीन सोवियत संघ से समझौता था, लेकिन जब लड़ाई शुरू हुई तो रूस ने युद्धक विमानों की सप्लाई करने में देरी की। वहीं, चीन को पेट्रोल की सप्लाई नहीं रोका।   

(अनुराधा त्रिवेदी*)
माओत्से तुंग को चीन का लाल सितारा माना जाता है। आज की पीपल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) चीन की सेना माओत्से तुंग के समय लाल सेना कहलाती थी। बीसवीं सदी के आरंभ में चीन भूख, बेकारी, भ्रष्टाचार और अव्यवस्था से बिखराव के कगार पर खड़ा था। बीसवीं सदी के अंत में साम्यवाद का लाल परचम थामे विकसित, एकीकृत और आत्मनिर्भर गणराज्य के रूप में मौजूदा चीन के बीच में यदि कोई एक सफल व्यक्ति खड़ा रहा, तो वह था- माओत्से तुंग।
माओत्से तुंग (माओ)
समय परिवर्तन के साथ धरती पर रेखाएं खिंची और कबीले के सरदार राष्ट्र-नायकों में परिवर्तित हुए। सौ साल की लंबी अवधि में पसरी बीसवीं सदी में इन राष्ट्र-नायकों ने प्रमुख किरदार निभाया। एक तरह से तमाम सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तनों की बागडोर इन्हीं महारथियों के हाथों में रही। राजतंत्र, उपनिवेशवाद और लोकतंत्र के संधिकाल वाली सदी में अपने-अपने देश का परचम थामे इन राजनेताओं ने विश्व इतिहास को अपने हाथों से लिखा। 1921 में गठित चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से शुरूआत से ही जुडऩे के बाद माओ को महत्व इसलिए मिला, क्योंकि 1924 से 1927 के बीच पार्टी में संकीर्णतावाद और विलयवाद के बीच दो भटकावों को सही वक्त पर पहचाना और पार्टी को सही राह दिखाई। 
 माओ ने देश को अपने सिद्धांत से चलाने के लिए तमाम लेखक, कलाकार, साहित्यकार, शिक्षाविद्, विद्वानों की हत्याएं करवा दीं, ताकि देश वो करे, जो माओत्से तुंग के सिद्धान्त कहते हें। प्रजातंत्र का धुर-विरोधी, एक तरह से कुटिल और दुष्ट मानसिकता का व्यक्ति था माओ। माओ कभी किसी से मिलता नहीं था। उसका प्रतिनिधित्व चाऊ इन लाइ, जो खुद भी महा-मक्कार, शातिर और कुटिल था। भारत में आयोजित एक बैठक में आने के लिए चीन के पास खुद का कोई विमान नहीं था। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारत से चीन विमान भेजा था चाऊ इन लाइ को लाने के लिए। नेहरू कभी चीन की कुटिलताओं, मक्कारियों को नहीं समझ पाए। उनका पंचशील का सिद्धान्त धरा का धरा रह गया। 
माओत्से तुंग
माओ कहता था- "सत्ता बंदूक की नली से ही निकलती है।" समतामूलक सिद्धांत की लाल चादर बिछाने के लिए माओत्से तुंग ने हजारों मासूमों के रक्त का इस्तेमाल किया। स्वयं को कवि और दार्शनिक कहने वाला माओ "पीपुल्स कम्यून" जैसी महत्वपूर्ण परियोजनाएं चलाता था। सारे उद्योग, कृषि, वाणिज्य, शिक्षा और सेना जैसे विषयों को समेटकर उसने एक सामुदायिक स्वरूप बुना था। अपने को कवि कहने वाले माओ ने चूहे, खटमल, मच्छरों को देश की कृषि का सबसे बड़ा दुश्मन मानकर इनके खिलाफ व्यापक जन-आंदोलन चलाया। 

माओ के विचारों का संकलन "लिटिल बुक ऑफ कोटेशन्श" या लाल किताब उस काल के युवा क्रांतिकारियों ने गीता और बाइबिल की तरह लोकप्रिय थी। माओ का मन हमेशा भारत को सबक सिखाने की योजनाएं बनाने में लगा रहता था। साधारण तौर पर माओत्से तुंग किसी से मिलता-जुलता नहीं था। जब भी कोई विदेशी राष्ट्राध्यक्ष चीन आता था, उससे माओ की मुलाकात पहले से तय नहीं की जाती थी। माओ का जब मन होता था, उन्हें बुला भेजता था, जैसे वह उनपर बहुत बड़ा उपकार कर रहा हो। जब माओ किसी भारतीय राजनयिक से मुस्कराते हुए मिलता, तो गहरी निगाह से देखता था। मानो माओ खबरदार कर रहा हो, कि इस छल-कपट के चैम्पियन को मूर्ख बनाना व्यर्थ होगा। 


माओ ने अपने जीवन में अपने दांतों पर कभी ब्रश नहीं किया। जब वह रोज उठते तो दांतों को साफ करने के लिए चाय का कुल्ला करते थे। एक समय ऐसा आ गया, कि उसके दांत ऐसे दिखते थे, मानो उसपर हरा पेंट कर दिया गया हो। नंगे पैर रहना। नहाने से बचे रहने की पूरी कोशिश करना और बाथ गाउन दिनभर पहने रहना। ये उनकी विचित्र आदतें थी। पढऩे-लिखने का गजब का शौकीन था।
भारत-चीन युद्ध 1962 
भारत-चीन युद्ध 1962
1962 के भारत-चीन युद्ध में माओ की बहुत बड़ी भूमिका थी। वह भारत को सबक सिखाना चाहता था। कहने को तो चीन ने ये कहा, कि भारत के साथ लड़ाई के लिए उसकी फारवर्ड नीति जिम्मेदार थी, लेकिन माओ ने दो साल पहले 1960 में ही भारत के खिलाफ रणनीति बनाना शुरू कर दिया था। यहां तक कि उन्होंने अमेरिका तक से पूंछ लिया, कि अगर हमें किसी देश के खिलाफ युद्ध में जाना पड़े, तो क्या अमेरिका ताइवान में उसका हिसाब चुकता करेगा ? अमेरिका का जवाब था, कि आप चीन या उससे बाहर कुछ भी करते हैं, उससे हमारा कोई मतलब नहीं है। हम बस ताइवान की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। 
भारत-चीन युद्ध 1962

1961 में माओ ने यही बात रूसी राष्ट्रपति खुश्चैव से पूंछी। उस जमाने में तिब्बत की सारी तेल सप्लाई रूप से आती थी। चीन को डर था, कि अगर उसकी भारत से लड़ाई हुई तो सोवियत संघ कहीं पेट्रोल की सप्लाई बंद न कर दे। उसने खुश्चैव से ये वादा लिया, कि वो ऐसा नहीं करेंगे। माओ ने उनसे कह भी दिया, कि भारत से हमारे गहरे मतभेद हैं। खुश्चैव ने उससे सौदा किया, कि आप दुनिया में हमारा विरोध तो कर रहे हैं, लेकिन जब हम क्यूबा में मिसाइलें भेजेंगे, तब आप उसका विरोध नहीं करेंगे। 

खुश्चैव को अच्छी तरह से मालूम हो चुका था, कि चीन भारत पर हमला कर सकता है। यहां तक कि भारत को मिग युद्धक विमानों की सप्लाई के लिए सोवियत संघ से समझौता हो चुका था, लेकिन जब लड़ाई शुरू हुई तो रूस ने युद्धक विमानों की सप्लाई करने में देरी की। लेकिन चीन को पेट्रोल की सप्लाई नहीं रोकी गई। बाद में जब खुश्चैव से पूंछा गया, कि आप ऐसा कैसे कर सकते थे ? तब खुश्चैव ने जवाब दिया- भारत हमारा दोस्त है, लेकिन चीन हमारा भाई है। 

1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध : ग्राफ़िक #साभार 
1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद चीन के राष्ट्रीय दिवस के मौके पर वहां के विदेश मंत्रालय में एक भोज आयोजित किया, जिसमें माओत्से तुंग उपस्थित था। इस अवसर पर दिए भाषण में उसने भारत को पाकिस्तान के लिए आक्रामक बताया गया था और भारत की निन्दा की गई थी। भोज में भारत का प्रतिनिधित्व जगत मेहता कर रहे थे। जगत मेहता की मेज के सामने जानबूझकर भाषण का अंग्रेजी अनुवाद नहीं रखा गया, ताकि वो इस भाषण को न समझ सकें। जगत मेहता ने अपने बगल में बैठे स्विस राजदूत के सामने फ्रेंच भाषा में रखा भाषण पढ़ा और भोज से तुरन्त वॉक आउट करने का फैसला कर लिया। चीनियों ने इसे अपने सर्वोच्च नेता का सबसे बड़ा अपमान माना। हॉल से बाहर निकलने पर जगत मेहता को उनकी कार तक पहुंचने नहीं दिया गया। वह और उनकी पत्नी रमा नेशनल्स पीपुल्स हॉल की सीढिय़ों पर कड़ी सर्दियों में ठिठुरते रहे। 

माओ के मन में हिन्दुस्तान के प्रति अपार घृणा थी। जिस वक्त माओ ने चीन का नेतृत्व संभाला, चीन बिखरा-बिखरा सा था। यहां यह भी स्मरणीय है, कि 1962 के युद्ध में भारत की तमाम कम्युनिस्ट पार्टियों ने, चाहे वो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी हो या कोई और कम्युनिस्ट पार्टी। इन्होंने चीन का साथ दिया था। आज भी कम्युनिस्ट देश में विकास की तमाम नीतियों का विरोध करते नजर आते हैं। सारी सरकारों का विरोध करते हैं, चाहे वह किसी भी पार्टी के हों। हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारे देकर माओत्से तुंग और चाऊ इन लाई ने दुनिया की सबसे बड़ी कूटनीतिक संधि "पंचशील के सिद्धांत" नेहरू द्वारा किए गए थे। इस कूटनीतिक संधि को तोडऩे में चीन ने माह भी नहीं लगाए और भारत पर युद्ध थोप दिया। 


1947 में आजाद हुआ भारत आजादी के साथ ही दो हमले झेल चुका था। कबाइली हमला, जिसे पाकिस्तान ने किया। जिसके परिणाम स्वरूप जम्मू-कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के पास चला गया, जिसे हम आज पीओके कहते हैं। कैलाश-मानसरोवर की सीमा रेखा तक चीन ने हमारी जमीन हड़प ली। चीन की साम्राज्य-विस्तार नीति से केवल भारत पीडि़त नहीं है, बल्कि ताइवान, हांगकांग, दक्षिण चीन सागर और अनेक देशों की छोटी-मोटी सीमाएं चीन के साथ विवादों में घिरी हुई हैं। 

भारत से चीन के संबंध तनाव के चरमोत्कर्ष पर है। आज 1962 वाला लचीला नेतृत्व नहीं है। आज प्रखर राष्ट्रवादी ताकतें सत्ता पर आसीन हैं, जिनसे किसी भी तरह की दया की उम्मीद करना चीन के लिए बेमानी होगा। 
(*लेखक भोपाल से वरिष्ठ पत्रकार हैं)    
Modi-Xi Jinping summit at Mamallapuram on 11 Oct 2019
   
PM Narendra Modi and Chinese President Xi Jinping
during a private dinner hosted by the former, at
Mamallapuram, near Chennai on October 11, 2019.
 
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