क्या कमी रह गई मेरी प्रार्थना में जो...


... मैं सावित्री न बन पाई !
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उषा किरण 'राज'*
वट वृक्ष को पूजते सुहागिनों को अपलक देख रही हूं, जेहन में बार-बार यही प्रश्न उठता है, सुहाग की रक्षा का वर, बार-बार हर वक्त इन्हीं सुहागिनों की तरह मैंने भी मांगा था। हर पल, हर वक्त घर के मन्दिर में कोई भी व्रत, पूजा-पाठ करते समय मन्दिर में दर्शन के समय वक्त हर सुहागिन स्त्री पहले पति को, बच्चों की, पूरे परिवार की रक्षा, दीर्घायु मांगती है, परिवार की ही सुख-समृद्धि चाहती है।
मेरी प्रार्थना क्या प्रार्थना नहीं थी ? करवा-चौथ वट-सावित्री व्रत, पति की मंगल-कामना, दीर्घ आयु वाले कोई व्रत हों, सभी तो किए थे मैंने। हर विवाहित यही वरदान ईश्वर से मांगती है, फिर मैं कहां चूंक गई ? क्या कमी रह गई मेरी प्रार्थना, याचना में !

स्मरण हो आता है, कल की ही तो बात है, जब मैं ब्याहकर आई थी। रंगीन सपने संजोए पीहर से चली थी। आनन्द उल्लास लिए ससुराल और यहां आकर स्वप्न को हकीकत में देखा। स्वयं के भाग्य पर गर्व हो गया, सब कुछ वैसा ही था, जैसा मैंने सोचा व चाहा था। सुदर्शन पति पाकर तो मैं निहाल हो गई। हूँ भी क्यूं न, कहां मैं सांवली सी दुबली-पतली, ऊँचाई भी कम, घर की बड़ी-बूढ़ी अम्माओं ने देखते ही क्या-क्या न कहा, पर मेरा चौड़ा उभरा माथा (मस्तक) देख कहने लगी भाग्यशाली तो बहू है !

लाल रंग मुझे हमेशा से प्रिय था, सजना-संवरना मुझे बेहद पसंद था। ललाट पर बड़ी सी लाल बिन्दी, मांग में सिंदूरी सिंदूर, हमेशा से प्रिय थे खनखनाती चूडिय़ां, छमछमाती पायल, बड़ी सी बिछुरी हमेशा ही शादी के बाद से मेरे अंक का अभिन्न हिस्सा रहे हैं !

सुनहरे दिन थे। पलक झपकते बीतते, शादी की प्रथम वर्षगांठ पर ही ईश्वर द्वारा प्रदत्त मुझे सुंदर सी प्यारी बेटी सुवर्णा मिली। दो वर्ष पर्यन्त बेटा, वह भी पिता की तरह सुदर्शन रजत मुझे, मेरी आंचल में आया। मेरी जिन्दगी सच में सोना-चांदी जैसी हो गई। पति तो हीरा थे ही। मैं स्वयं को मोती समझती
 सदैव प्यारे बच्चों के रूप में दो सुन्दर पुष्प मेरे जीवन की बगिया को गुलजार कर दिया। स्वयं को दर्पण में निहारती, लाल बिन्दी, गोल-गोल और अच्छी लगती, इनका सानिध्य पाकर स्वयं को रानी से कम न आंकती। स्वयं से कहती घर की रानी तो हूं न मैं ! सभी कुछ तो हैं मेरे पास, शहर की अच्छी सी कालोनी में खुबसूरत घर है मेरा। नेमप्लेट पर अपना नाम भी हमेशा से देखना चाहती थी। ये डॉक्टर तो थे, मैं डाक्टरनी अपने आप बन गई। पता ही नही चला, बच्चे बड़े हो रहे है। हम गांव से शहर आ गयी। अच्छे हॉस्पिटल में नौकरी थी इनकी। 

शहर में अचानक कहर आ गया। शहर क्या, पूरी दुनिया में करोना का कहर हर जगह त्राहि-त्राहि देखते-देखते ही हमारा शहर भी वीरान सा होता चला गया। स्कूल, मॉल, दुकानें सब बन्द। हम अपने-अपने घरों में बंद। सब कुछ सूना-सूना सा ! इनकी ड्यूटी तो अस्पताल में लग गई, जहां करोना संक्रमित आते थे। दिन-प्रतिदिन संक्रमित मरीजों का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा था। संक्रमण से मौत का
 

खौफ लोगों में बढ़ता जा रहा था। इसके भी ड्यूटी के घंटे बढ़ते ही चले गए। मोबाइल पर एकाध बार बात हो पाती। मैं ठीक हूं। घर में सबका ख्याल रखना, इतना ही कहते बस। अपने कर्तव्य में व्यस्त रहते। धीरे-धीरे दिन बीतते गए। 15, 20, 25 दिन हो गए घर में आए। हम सबको बहुत डर लगने लगा, फिर एक सह डाक्टर का फोन आया, कि डॉक्टर साहब को संक्रमण हो गया है। इसलिए अभी कुछ दिन घर नहीं आ पाएंगे। हे भगवान! ये क्या हो गया। सुनकर कलेजा मुंह को आ गया। हम सभी अनहोनी की सोचकर रुह कांप उठी। पर स्वयं को बच्चों को दिलासा देती रही, कि संक्रमण तो ठीक हो ही जाता है। पापा जल्दी घर आएंगे, देखना।
अस्पताल हम गए, पर मिलने नहीं दिया गया। 


अनहोनी की आशंका मन को घेरे जा रही थी। दरवाजे की जरा सी आहट, मोबाइल फोन की घंटी अंदर तक कंपकपा देती। न दिन, न रात सूझता ही नहीं। धीरे-धीरे 15 दिन बीत गए, कोई सुधार का समाचार नहीं। हे भगवान! क्या करुं, पूजा-पाठ, महामृत्युंजय पाठ, जाप, देवी-देवताओं का पूजन। कई मानता, भगवान से करवाचौथ, वट सावित्री पूजन सभी सौभाग्य-पूजन की दुहाई देती, पर सब व्यर्थ ! 

20 दिन हॉस्पिटल में रखने पर भी कुछ न हो पाया और एकदिन डॉक्टर का फोन आया। हम सब फोन की तरफ दौड़ पड़े। उधर से रुंधे गले से आवाज आई। सॉरी... मोबाइल छिटक कर दूर जा गिरा। मैं मूछित हो गई। करुण रुदन सुनाई दिया बस... मैं और मेरा सब कुछ बिखर गया। सिंदूर, गोल लाल बड़ी सी बिन्दी, मंगलसूत्र के मोती बिखर गए। लाल चूडिय़ों की खनखनाहट खामोश हो गई। पायल की छनछन, बिछुआ, सब मौन। पता ही नहीं चला, कब, कैसे ?

सिर्फ 10 वर्ष का ही तो साथ रहा। पल में ही बीत गया। इस भयावह स्थिति का सामना कैसे कर पाऊंगी। अंतिम दर्शन भी न कर पाई। आज एक माह होने को आया। आज वट सावित्री है। सामने मंदिर के आंगन में वट का विशाल पेड़ है। सुबह से ही सुहागिने पूजन कर रही हैं। मैं बस अलपक 

देखे जा रही हूं। मेरा भी मन कर रहा है, लाल साड़ी पहनकर, सोलह श्रृंगार कर, सुहागिनों के साथ मिलकर पूजा-अर्चना करुं। हमेशा की तरह, पर मैं भाग्यहीन, ये न कर पाई। पूजन करते समय मैंने देखा, एक नवविवाहिता का ध्यान मेरी बालकनी पर आया।

जहां मैं बैठी, उन्हें ही देख रही थी। उसने झट से अपनी नजर हटा ली। मुझे सफेद साड़ी और श्रृंगारविहीन देख। शायद वह सिहर उठी। पर फिर मेरी तरफ पीठकर पूजन करने लगी। स्थिति को भांपकर मैं तुरन्त वहां से हट गई। पूजा में उसका मन नहीं लग रहा था। पीछे मुड़कर देखने का प्रयास किया। मुझे वहां न देख शायद उसने चैन की सांस ली होगी। मैं परदे की ओट से सब देख रही थी।

मैंने दिल से उसे अशीर्वाद दिया सदा सुहागिन रहो। सभी सुहागिनों के लिए मन ही मन सौभाग्यवती रहो कहा ! पर मेरा आशीर्वाद, शुभकामना फलीभूत होती है या नहीं, मैं नहीं जानती ! बस इतना जानती हूं, वट सावित्री-पूजन करने पर भी मैं सावित्री न बन पाई ! दुर्भाग्य... !

- * लेखिका कहानीकार हैं मो. 9993811036 
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