जब अपने पति और बेटे का शव घर में, घर के फर्नीचर से जलाना पड़ा

इस सच्ची घटना को पढ़कर आप काँप जाएंगे और शायद आपका दिल कहे... 

...मार दो ऐसे दोगले नेताओं के सिर में गोली !

- हिन्दुओं से सदैव छल करने वाली पार्टी ने हमें कितने घाव दिए हैं !


(धर्म नगरी / डीएन न्यूज) वाट्सएप- 6261868110 
आज (2 नवम्बर) के दिन दिल्ली में घर का फर्नीचर इकट्ठा किया
और
घर वालों ने घर में सड़ रही अपनों के शवों का दाह-संस्कार किया था।
दिनांक : 1 नवंबर 1984
समय : सुबह के 9 बजेे। 
स्थान : दिल्ली।

मैं अपने रिटायर्ड आर्मी मैन पति और अपने बेटे के साथ खाना खा रही थी।
मेरा बेटा भी आर्मी में था कुछ दिनों के लिए छुट्टी पे आया था । 
दिवाली की छुट्टियां थी तो मेरे नाती और नातिन भी आये थे।
हम सभी आराम से खा रहे थे और मेरे बेटे से आर्मी कैंप की बातें पूछ रहे थे।
तभी बाहर कुछ शोर सुनाई दिया। कुछ अजीब सा , जैसे काफी लोगो की भीड़ हो।
मेरे पति ने कहा बच्चों को लेकर अंदर जाओ। मैं अंदर गयी, लेकिन दरवाजे से सब देख रही थी ।

बहुत सारे लोग हमारे घर में घुस आये थे। हाथ में तलवारे थी और डंडे। उन्होंने बिना कुछ पूछे, मेरे पति के पेट में तलवार मार दी। मेरे पति वहीँ गिर गए। कुछ और तलवार के वार किये उन लोगो ने। वो तड़प रहे थे और अचानक उनका शरीर ढीला पड़ गया।

उन्होंने मेरे बेटे को पकड़ लिया और पेट्रोल डाल के आग लगा दी। मेरा बेटा मेरे सामने आग में जल रहा था। इधर उधर दौड़ रहा था। तभी वो लोगो की भीड़ वहां से चली गयी ।

मैंने आग बुझाई। बेटे की कुछ सांसे चल रही थी।
मैंने उसके मुंह में पानी डाला और कहा "मैं तेरी माँ, तेरे आज तक के किये सारे गुनाह माफ़ करती हूँ, अब भगवान का नाम लो, एकबार भगवान का नाम लो।"

मैं बार-बार यही बोल रही थी और तभी मेरा बेटा भी उस भगवान के चरणों में लीन हो गया।
मैंने दोनों बच्चों को छत्त पे छुपा दिया और बोला यहां से कही नही जाना। और खुद मैं पुलिस स्टेशन गयी।

पुलिस वाले दरोगा ने बहुत ही "विन्रम" शब्दों में कहा- "सब जगह लोग मर रहे हैं, जब सब मर जायेंगे तब आना। और जो सबको न्याय मिलेगा वो तुझे भी मिल जायेगा। अब घर जा, यहाँ दिमाग खराब नही कर मेरा।"

मैं जैसे- तैसे घर वापिस आई।
रास्ते में देखा तो हर तरफ आग और लाशें दिखाई दे रही थी ।
शाम हो चुकी थी।
मैं कभी छत पे जा के बच्चों को देखती, जो कि काफी डरे हुए थे।
कभी अपने पति की लाश के पास बैठती कभी बेटे के चेहरे पे हाथ फेर रही थी।
रात हुयी अब लाशों में से बदबू आने लगी।
मैं बच्चों के साथ छत पे बैठी रही।
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2 नवंबर की सुबह हुई।
घर से बाहर जाना वो भी बच्चों के साथ जाना मतलब मौत को गले लगाने के बराबर था।
मैंने घर का फर्नीचर इकट्ठा किया और उस फर्नीचर में अपने बेटे और पति को लिटाया और उनका अंतिम संस्कार किया।
आज फिर भीड़ का शोर सुनाई दिया। पर जला हुआ सामान देख के वो किसी और का घर जलाने आगे चले गए।

2 नवंबर का दिन भी ऐसे ही कट गया।

3 नवंबर को आर्मी आई और हमें कैंपो में ले जाया गया।
ये थी "मेरी कहानी"
एक स्वतन्त्रता सेनानी की बेटी की कहानी।
एक आर्मी मैन की पत्नी और माँ की कहानी।

"जब मर जाऊँगी तब ये कहानी भी मर जायेगी"
कोसती हूँ अपने पति को जो 25 साल हमसे दूर बॉर्डर पे दुश्मनों से लड़ता रहा। जबकि असली दुश्मन तो घर के अंदर थे ।
एक बात का दुःख है ।
अगर मेरे पति और बेटा बॉर्डर पर मरते, तो शान से कहती मैं शहीद की पत्नी हूँ।
शहीद की माँ हूँ ।
पर अब क्या कहूँ ?
"अपनों ने मारा है"।
जगदीश कौर, जिनको अपने ही घर में अपने पति, बेटे के शव को 
घर के फर्नीचर से घर में जलाने की भयानक पीड़ा आज भी सहन कर रहीं हैं 

(An Interview of 1984 Sikh "Riots" Victim Jagdeesh Kour.) 
#Justice_Delayed_Justice_Denied
#Never_Forget_1984
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