कालभैरव मंदिर : 6000 वर्ष प्राचीन मन्दिर जहाँ भैरव करते है मदिरापान

कई बार मूर्ति की वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं ने पड़ताल किया-
मूर्ति में छिद्र नहीं, फिर प्रतिमा कैसे करती है मदिरापान, कोई जान नहीं सका 


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कालभैरव की चमत्कारी प्रतिमा अनादिकाल से उज्जयनी में विद्यमान है।शिप्रा के उत्तर तट पर ‘कालभैरव’ का विशाल मंदिर है। मंदिर के पास नीचे शिप्रा नदी का घाट बहुत बड़ा और सुंदर बना है। प्रवेश द्वार बहुत भव्य ऊंचा बना हुआ है। द्वार से अंदर प्रवेश करने पर दीप स्तंभ खड़ा दिखाई देता है, उसके बाद में मंदिर हैं। कालभैरव की मूर्ति भव्य एवं प्रभावोत्पादक है। मूर्ति को मद्यपान कराया जाता है। मुख में कोई छेद नहीं है। यह यहां का आश्चर्यपूर्ण चमत्कार है। कई बार मूर्ति की वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने पड़ताल की, लेकिन वे भी इस रहस्य को जान नहीं सके हैं कि प्रतिमा कैसे मदिरापान कर लेती है, जबकि कोई छिद्र नहीं है।

मान्यता है, कालभैरव के प्राचीन मंदिर का निर्माण भद्रसेन नाम के राजा ने करवाया। परमार काल में यह मंदिर विशाल और भव्य रहा होगा। प्राचीन मंदिरों के ध्वांसशेषों से मंदिर का पुनर्निमाण होता रहा। मंदिर का निर्माण राजा जयसिंह ने भी करवाया था। वर्तमान मंदिर का जीर्णोद्धार चुनचुन गिरी मठ कर्नाटक ने करवाया है। अनुमान है, मंदिर लगभग 6000 साल प्राचीन है। मंदिर के समीप ही प्राचीन पाताल भैरवी मंदिर है। 

कालभैरव मंदिर पर खुदाई का काम हुआ। नदी में जल  भरा रहता है। यहां भैरव अष्टमी को यात्रा लगती है और भैरवजी की सवारी निकलती है। यह मंदिर अति प्राचीन है। पुराणों में अष्ट भैरवों की प्रसिद्धि है। उनमें ये प्रमुख है। प्रसिद्ध तांत्रिक गोपीनाथ, रामअवधेश, सुधाकर, मौनीबाबा और केलकर सा. अक्सर यहीं साधना करने आते हैं।

बाईं तरफ के द्वार से बाहर हैं किले की ओर जाने का मार्ग। यह किला लगभग 300 हाथ लंबा और 30 हाथ ऊंचा है। इसी जगह पहले सम्राट अशोक ने उज्जैन का जेल खाना बनवाया था। सम्राट अशोक के काल में इसे ‘नरक या नरकागार’ कहा जाता था। आज इसमें उज्जयिनी का बड़ा जेल है। इस जेल के कैदी द्वारा निर्मित भेरूगढ़ प्रिंट की चादरें विख्यात हैं। जेल में हाथ की कती-बुनी दरी वगैरह बनाई जाती है।

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कालभैरव करते हैं मदिरा का सेवन
भगवान रुद्रावतार कालभैरव की सबसे रहस्यमयी क्रिया मदिरा सेवन है, जो श्र्द्धा और आस्था का जीवंत प्रतीक होने के साथ तंत्रोक्त समर्पण का मूर्तिमान स्वरूप है। यहां कालभैरव को भोग के रूप से मदिरा चढ़ाने की प्राचीन परंपरा है।

प्रसाद के रूप में भक्त भी यहां मदिरा का सेवन करते हैं। मंत्रोच्चार के गुंजित स्वरों के बीच जब मदिरा का पात्र श्रीकालभैरव के अधरों पर लगाया जाता है तो क्षणमात्र में पात्र रिक्त हो जाता है। यहां प्रतिदिन लगभग 250 बोतल शराब का कालभैरव को भोग लगाया जाता है। रविवार का दिन भैरव दिवस होने से यह आंकड़ा 500 बोतल तक पहुंच जाता है। तांत्रिक शक्तिपीठ होने के कारण यहां पर बलि का भी प्रावधान है।

भैरव साधना तंत्रमार्ग की साधना है, परन्तु जनसानम में भैरव कुलदेवता माने जाते हैं। भैरवदेव का प्रिय पेय मदिरा और प्रिय भोजन मांस है। भैरव महाराज का वाहन श्वान और प्रिय रंग लाल है। कृष्णपक्ष की रात्रि 12 बजे कालभैरव का जन्म हुआ था अत: परमप्रिय तिथि अष्टमी है। यदि इस दिन मंगलवार हो तो अति उत्तम माना जाता है। भैरव अष्टमी के दिन उपवास कर रात्रि जागरण के साथ कालभैरव की उपासना की जाती है। यह आराधना पाप और विघ्नों का नाश कर कल्याणमयी और मंगलदायी मानी जाती है। शिव और शक्ति का दर्शन, पूजन भैरव आराधना के बगैर अधूरा माना जाता है।

कालभैरव के जन्म की कथा-
एक बार ब्रह्मा और विष्णु के मध्य विवाद हो गया। दोनों अपने को श्रेष्ठ बताकर श्रीशिव को तुच्छ कहने लगे। तब श्रीशिव के क्रोध से भैरव नाम विकराल पुरुष उत्पन्न हुए। श्रीभैरव का स्वरूप अत्यंत भयानक साक्षात काल के समान था, जिससे काल भी डरता था। जिससे इनका नाम कालभैरव हुआ। श्रीशिव ने कालभैरव को ब्रह्मा पर शासन कर संसार का पालन करने का आदेश दिया।

महादेव शिव की आज्ञा का पालन करते हुए श्रीकालभैरव ने ब्रह्माजी का पांचवा शिर अपने नरवाग्र से काट दिया। तब भयभीत होकर ब्रह्मा- विष्णु श्रीमहाकाल को शरणागत हो गए। तब श्रीशिव ने दोनों को क्षमा करते हुए अभयदान दिया और श्रीकालभैरव से कहा कि, चूंकि श्रीभैरव भक्तों के पापों का तत्काल नाश कर देंगे अत: भैरव महाराज का नाम पापभक्षण भी होगा। साथ ही श्री विश्वनाथ ने अपनी प्रियनगरी काशी का कोतवाल भी उनको बनाया।

स्कन्दपुराण के अनुसार पूर्वकाल में कालचक्र के द्वारा कुछ कृत्याएं प्रगट की गई, जो योगिनीगण के नाम से प्रसिद्ध थी। उनमें से एक काली नामक प्रसिद्ध योगिनी थी। उसने भैरवजी को पुत्रवत पाला था। भैरव महाराज ने क्षेत्र के समस्त दोष और उत्पात नष्ट कर दिए। महामारी, पूतना, कृत्या, शकुनी, रेवती, खला, कोटरी, तामसी और माया, ये नौ मातृकाएं भयंकर और दुष्ट प्रवृत्ति की थी। तब  भैरवजी ने इनको वश में किया था।

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तंत्र साधना का प्रमुख केंद्र-
तंत्र शास्त्र में दस भैरवों का उल्लेख है। उज्जैन (उज्जयिनी) अष्टभैरवों की नगरी है
 ये अष्टभैरव दंडपाणी, विक्रांत, आताल-पाताल या महाभैरव, बटुक, गौरे, क्षेत्रपाल, आनन्द और कालभैरव के रूप में विख्यात है। अष्टभैरव में कालभैरव प्रमुख देव है। कालभैरव को मदिरा का देव भी कहा जाता है। कामाख्या मेदिर के बाद तंत्र साधना की सर्वाधिक उपासना और उपयुक्त स्थली उज्जैन नगरी है उज्जैन में भी कालभैरव को तंत्र का प्रमुख देवता माना जाता है। काशी के बाद उज्जैन (अवंतिका) में भैरवजी अपने सर्वाधिक स्वरूपों में विराजमान है। भैरवजी  लोकदेवता के रूप में उज्जयिनी की परंपरा के अभिन्न अंग बन चुके हैं। भैरव को शिव अवतार माना जाता है। तैतरीय उपनिषद में कहा गया है, कि रुद्र ही भैरव है। 

वर्ष में दो बार नगर भ्रमण-
डोल ग्यारस एवं भैरव-अष्टमी (इन दो दिन ) को महाकाल के सेनापति कालभैरव पालकी में विराजमान होकर नगर भ्रमण के लिए प्रस्थान करते हैं। इन अवसरों पर बाबा का आकर्षक श्रंगार किया जाता है। सिंधिया रियासत के दमकते आभूषण जो हीरे, मोती, पन्ना और पुखराज जैसे  रत्नों की आभा से दमकते रहते हैं, धारण कर नगर विहार के लिए प्रस्थान करते हैं।

भैरव महाराज सवारी कालभैरव मंदिर से निकलकर सिद्धवट पर जाती है। सिद्धवट पर विराजित महादेव अपने अंश भैरव से भेंट करते हैं। अष्टमी तिथि को आताल-पाताल भैरव की सवारी निकलती है। समीप प्राचीन ओखरेश्वर शमशान घाट है, जहां विक्रांत भैरव का पुरातन मंदिर है। मंदिर में विराजित प्रतिमा 4000 साल पुरानी मानी जाती है।

पूर्व में यहां का प्राचीन मंदिर शिप्रा की बाढ़ में बह गया था, लेकिन मूर्ति सुरक्षित रही। 1960 में डबराल बाबा ने इसकी खोज की। अष्टभैरव की नगरी की पदवी धारण करने के साथ उज्जयिनी ने तंत्रपुरी बनने का गौरव भी प्राप्त किया है। मंत्र के सात्विक रूप और तंत्र के तामसिक स्वरूप के संगम से नगर और नगरजन आनादिकाल से सुख, शांति और भक्तिभाव का जीवन व्यतित करते हैं। जहां छप्पन भोग गौरस, शुद्धता और पवित्रता का प्रतीक है तो मांस-मदिरा का भोग शक्ति के साथ रक्षण का बाह्य प्रतीक है। #साभार 
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Shri KalBhairavashtakam
Shri Kal-Bhairavashtakam is a Sanskrit Stotra. It is a very beautiful creation of Shri Adi Shankaracharaya. It is a praise of Shri Kalbhairava i.e. God Shiva who resides in Kashi i.e. Banaras, holy city in India. I have tried to translate the meaning of the stotra. It is very difficult to find exact word in English for Sanskrit word, with the same meaning. It is possible to loose the original beauty of the stotra while translating. I am sorry for that.
  
I always worship very kind hearted God of Kashi nagari (KalBhairva). whose holy feet are worshiped by the king of Gods i.e. Indra; who has worn Moon as an ornament on his head; who is wearing serpent as a sacrificial thread; who has no clothes on his body; whom Narad rushi and other great yogis are worshiping.

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