#kisanandolan : अहं के साथ कानून-व्यवस्था का सवाल बनता कृषि कानून

#KisanAandolan

-अनुराधा त्रिवेदी
किसान और सरकार के बीच में छह राउंड की वार्ता हो चुकी है, लेकिन नतीजा सिफर है। एक तरफ नए कृषि कानून वापस लेने के निर्णय पर किसान संगठन के नेताओं ने सरकार से हां और न में जवाब मांगा है। किसान नए कृषि कानून वापस लेने की मांग पर अड़े हुए हैं। उससे कम पर वो किसी समझौते के लिए तैयार नहीं हैं। दूसरी तरफ केन्द्र सरकार के मंत्री न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर किसानों को लिखित में आश्वासन देने के साथ-साथ कई दूसरी मांगें मानने को तैयार हैं। लेकिन केन्द्र सरकार नए कृषि कानूनों को वापस लेने के मूड में नहीं दिख रही। दूसरी तरफ ये महत्वपूर्ण हो जाता है, कि किसान और सरकार के बीच का अवरोध कैसे दूर हो। 

सरकार जो किसानों के लिए तीन कानून लेकर आई है, ये कोई नई बात नहीं है। 1990 में भानु प्रताप सिंह की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने इस कानून की सिफारित की थी। तब से ये कानून लंबित पड़ा था। वर्तमान सरकार ने इसे लागू किया है। किसानों के एमएसपी खत्म होने की आशंका बिल्कुल जायज नहीं है, क्योंकि जबसे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम कानून पारित हुआ है, तब से हर साल केन्द्र सरकार को 450 लाख टन गेहूं और चावल की आवश्यकता रहती है। इसके अलावा सार्वजनिक वितरण प्राणी, सेना के लिए और खुले बाजार में कीमत को नियंत्रित करने के लिए केन्द्र सरकार अनाज खरीदती है। इससे एमएसपी खत्म होने की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं। लेकिन बीते कुछ वर्षों से धीरे-धीरे सरकारों ने ऐसी खरीदी कम की है। इसलिए एमएसपी को लेकर आशंकाएं उत्पन्न हो रही हैं। 

कृषि क्षेत्र में भारत को बहुत दिक्कतें हैं और इसमें सुधार लाने की आवश्यकता है। किसानों के निश्चित आय की समस्या को दूर करने की आवश्यकता है। एमएसपी और किसान सम्मान निधि जैसी दोनों व्यवस्था साथ-साथ चले, न कि कोई एक व्यवस्था। एमएसपी केवल 23 फसलों पर मिलती है, जो 80 फीसदी फसलों को कवर करती है। लंबे समय तक चलने वाले आंदोलन न केवल आर्थिक और सामाजिक प्रभाव छोड़ते हैं, अपितु जन मानस को भी मनोवैज्ञानिक रूप से भी प्रभावित करते हैं। तमाम आंदोलन वैसे तो अहिंसक प्रवृत्ति के होते हैं। मगर लगातार पक्ष-विपक्ष के संवाद के फलस्वरूप जो सोशल मीडिया पर हिंसा जन्म लेती है, वह समाज में वैमनस्य को जन्म देती है। वर्तमान में चल रहे किसान आंदोलन का नेतृत्व किसानों के बिल संबंधी मांग को लेकर है। 
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पिछले बीस दिन से दिल्ली के अधिकांश रास्ते बंद हैं। आम आदमी को इसके कारण लगातार हानि उठानी पड़ रही है। पंजाब के किसानों को छोड़़कर लगभग सभी राज्यों के किसानों ने बिल का समर्थन किया है। पंजाब में भी इस बिल का विरोध केवल किसानों का एक वर्ग ही कर रहा है। इस विरोध में पंजाब की राजनीतिक पार्टियां अपने राजनीतिक उद्देय के लिए आंदोलन का समर्थन कर रही हैं, जबकि केन्द्र सरकार लगातार इस विषय पर स्पष्टीकरण जारी कर रही है।

पंजाब के राजनीतिक दलों का हित प्रचलित मंडियों से जुड़ा है। जबकि नए बिल में किसान अपना अन्न कहीं भी बेचने के लिए स्वतंत्र है। ये पक्की बात है, कि जो आंदोलन लंबे समय तक चलते हैं, प्राय: वह अपने अपने उद्देश्यों से भटक जाते हैं। जब देश सरहद पर तनाव की समस्याओं से जूझ रहा हो और देश कोरोना काल के चलते आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से जूझ रहा हो, ऐसे समय में विपक्ष से ये उम्मीद की जाती है, कि वह अपनी रचनात्मकता देश के प्रति दिखाएगा। पर विपक्ष को ऐसा लगता है कोई सरोकार नहीं है।

य स्थिति का कारण भारतीय जनता पार्टी का अपना इतिहास है, जो आपात काल से है। भाजपा सदैव अपने को आपातकाल लोकतांत्रित लड़ाई की मुख्य नायक और कांग्रेस को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करती आई है। भाजपा अपनी इस विरासत में एक दाग भी नहीं चाहती है, जिसके कारण वह कई अवसरों पर जनता के हितों की अपेक्षा अपनी विरासत को संभालती दिखती है। पर, अब भाजपा को अगर राष्ट्र की प्रगति और समाज दोनों को एकसाथ साधना है, तो उसे दुविधा से निकलकर कुछ कठोर निर्णय भी लेने चाहिए, क्योंकि इन आंदोलनों का नेतृत्व वो शक्तियां भी कर रही हैं, जिन्हें लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर बिल्कुल विश्वास नहीं है। उनके लिए लोकतंत्र केवल अपने हितों को साधने का माध्यम है। अब दोनों पक्षों के लिए नए कृषि कानून अहं का मुद्दा बनने के साथ कानून-व्यवस्था का सवाल भी बनता जा रहा है।

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