दक्षिण से आदि शंकर, उत्तर से तुलसी, पश्चिम से मोदी सबने काशी से फहराया सनातन की धर्म पताका


दबा-कुचला हिन्दू इतना ज्यादा आहत था, कि उसने एक होकर अपनी सरकार बनाई

-अनुराधा त्रिवेदी*
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भारत विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक है, जिसमें बहुरंगी विविधता और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है। बारहवीं सदी के बाद से भारत सदैव विदेशी सभ्यताओं के निशाने पर रहा। सैकड़ों वर्ष मुगलों, यवनों के आक्रमणों को झेलता हुआ, सतत विदेशी आक्रमणकारियों के हमले से भारतीय सांस्कृतिक विरासतें और सनातन धर्म धूमिल हुआ। संस्कृतियों के संक्रमण के दौर में तब, जबकि भारत भूमि पर सनातन धर्म गहरे अंधेरे में धंस गया था, तब सुदूर दक्षिण केरल प्रांत के कालडि ग्राम से आदि शंकराचार्य मात्र आठ साल की आयु में मोक्ष की प्राप्ति के लिए घर छोड़कर गुरु की खोज में निकल पड़े। भारत के दक्षिणी राज्य से नर्मदी नदी के किनारे पहुंचने के लिए युवा शंकर ने 2000 किमी. तक की पदयात्रा की। यहां इन्होंने गुरु गोविन्दपद से शिक्षा ली, करीब चार सालों तक गुरु की सेवा की। शंकर ने वैदिक धर्मों को आत्मसात कर लिया।

शंकराचार्य केरल से कश्मीर, पुरी, कांची से काशी तक घूमे। हिमालय की तराई से नर्मदा, गंगा के तटों तक और पूर्व से पश्चिम के घाटों तक उन्होंने यात्राएं की। शंकराचार्य के समय तमाम अंधविश्वासों एवं कर्मकांडों का बोलबाला हो गया था। सनातन धर्म का मूल रूप नष्ट हो चुका था। शंकराचार्य ने कई प्रसिद्ध विद्धानों को शास्त्रार्थ की चुनौती दी और बड़े-बड़े विद्वानों को अपने शास्त्रार्थ से पराजित किया। अंतत: सभी ने शंकराचार्य को अपना गुरु मान लिया।

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शंकर के समय असंख्य संप्रदाय अपने-अपने संकीर्ण दर्शन के साथ अस्तित्व में थे। लोगों के भ्रम को दूर करने के लिए शंकराचार्य ने छह संप्रदाय वाली व्यवस्था प्रारंभ की, जिसमें विष्णु, शिव, शक्ति, मुरुख और सूर्य प्रमुख देवता माने गए। उन्होंने देश के प्रमुख मंदिरों के लिए नए नियम बनाएं। उनके द्वारा स्थापित अद्वैत वेदान्त संप्रदाय नवीं सदी में काफी लोकप्रिय हुआ। शंकराचार्य ने वर्ण के आधार पर ब्राह्मण प्रधान व्यवस्था को स्वीकार किया। शंकराचार्य ने सन्यासी समुदाय में सुधार के लिए भारतीय उप-महाद्वीप में चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। इन चारों मठों में उन्होंने अपने सबसे अनुभवी शिष्यों की नियुक्ति की। मात्र 32 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।

आज हम इस विषय पर बात करेंगे, कि भारतीय सनातन धर्म की पुनस्र्थापना करने केरल के कालडि ग्राम से आदि शंकराचार्य बनारस पहुंचे और उन्होंने भारतीय सनातन धर्म के पुनर्जागरण की अलख जगाई। वहीं, आज से 500 साल पहले उत्तर प्रदेश के बांदा जनपद के ग्राम राजापुर में जन्में तुलसीदास ने काशी पहुंचकर रामचरित मानस ग्रंथ की रचना की और भगवान राम को भारत के प्रत्येक परिवारों के बीच स्थापित कर दिया। भारत के प्रत्येक हिन्दू परिवार में राम की आराधना, श्रीरामचरित मानस के माध्यम से की जाती है। दुनियाभर के हिन्दुओं का पूजनीय ग्रंथ श्रीरामचरित मानस है। हर हिन्दू के मन और प्राण के रूप में राम स्थापित हैं।

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आदि शंकराचार्य के बाद सनातन धर्म की पताका को अकबर के शासनकाल में तुलसीदास ने फैलाया। मुगल शासन समाप्त होने के बाद भारत में अंग्रेजों का राज्य शुरू हुआ। ईसाई धर्म ने हिन्दुस्तान में अतिक्रमण फैलाने वाले धर्म के रूप में प्रवेश किया। संस्कृतियों के संक्रमण से भारत लगातार 2013 तक संक्रमित हुआ। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के बाद 79 वर्ष तक भारत में जिन राजनीतिक पार्टियों ने शासन किया, जिन्होंने सत्ता का सुख बपौती के रूप में हासिल करने के लिए लगातार सनातन धर्मियों की उपेक्षा की और उसे नष्ट करने का प्रयास किया।

वाराणसी के घाट पर माँ गंगा की आरती करते PM मोदी, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह (फाइल फोटो) @DharmNagari  

79 वर्ष तक देश की बहुसंख्यक आबादी हिन्दू एक तरह से तिरस्कृत और उपेक्षित रही। हिन्दुओं के ऊपर हमेशा मुस्लिमो के हितों और ईसाइयों के कल्चर को थोपना का प्रयास हुआ। सद्भाव और गंगा-जमुनी संस्कृति जैसे ढकोसलों भरे नारों से हिन्दुओं की सतत उपेक्षा की गई। इसका परिणाम भारत में मई 2014 में हिन्दुत्व की राजनीति करने वाली पार्टी के द्वारा पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने के रूप में सामने आया।


कहीं न कहीं, दबा-कुचला हिन्दू इतना ज्यादा आहत था, कि उसने एक होकर अपनी सरकार बनाई। संयोग देखिये, गुजरात प्रांत का रहने वाला उत्तर प्रदेश के काशी से भारत भूमि पर पहली बार हिन्दुओं की सरकार बनाने की पताका फहराता है। सनातन धर्म की स्थापना के लिए आदि शंकर ने काशी से शंखनाद किया था। राम को घर-घर स्थापित करने के लिए तुलसीदास ने काशी से ग्रंथ की रचना की थी। देश में हिन्दुत्व की स्थापना के लिए गुजरात से आकर काशी में मोदी ने विजय पताका फहराई।

नौवीं सदी से सनानत धर्म की स्थापना के लिए जितने भी प्रयास हुए, उसकी प्रेरणा काशी रही। यह केवल संयोग नहीं है। काशी चिरंजीवी नगरी है। काशी का अस्तित्व तब भी था, जब कहीं कुछ नहीं था। काशी, जहां मृत्यु भी एक पर्व है, काशी जहां प्राण त्यागने की इच्छा लेकर दुनियाभर से लोग काशी में आकर बस जाते हैं। विचार यही, कि यहां मोक्ष प्रदान होता है। उस काशी की भूमि से आदि शंकर से लेकर तुलसी, कबीर और मोदी तक जन-जागरण निरंतर जारी है।
*प्रबंध संपादक - धर्म नगरी / DN News

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