#India : भारत के पराधीन [गुलाम] होने का मुख्य कारण धन और भोगवासना है... महाभारत


महाभारत के उद्योग पर्व के संदर्भ में  
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आचार्य बृजपालजी शुक्ल*
महाभारत के उद्योग पर्व के 124 वें अध्याय के 25 वें और 27 वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने युद्ध प्रारम्भ होने के पहले ही दुर्योधन को नीच लोगों की बातें न मानने का परामर्श देते हुए कहा कि-
योsर्थकामस्य  वचनं  प्रातिकूल्यान्न  मृष्यते।
श्रृणोति प्रतिकूलानि द्विषतां वशमेति सः।।25।।


भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि हे दुर्योधन ! शाशक की दृष्टि मात्र अर्थ और भोग में ही नहीं होना चाहिए। धर्म और नैतिकता में भी होना चाहिए।

जो शाशक अर्थ और काम अर्थात भोग को ही प्रधानता देकर धर्म और नैतिकता को अपने विरुद्ध मानता है, उस शाशक को अर्थ और काम अर्थात भोग विरुद्ध बातें विरुद्ध प्रतीति होतीं हैं। धर्म और नैतिकता की बातें प्रतिकूल लगतीं हैं। इसलिए अर्थ और काम अर्थात भोग के लिए वह शाशक अपने मित्ररूप कपटी शत्रुओं की अर्थ और काम प्रधान बातें मानकर उन शत्रुओं के अधीन हो जाता है। जिस देश का शाशक ही शत्रुओं के अधीन हो जाता है, उस देश की सारी जनता भी उसी शत्रुदेश के अधीन हो जाती है।

इस पर थोड़ा विचार करें-
जिस देश में जो परम्परा बहुत काल से चली आ रही होती है, वही उस देश की संस्कृति, शिक्षा और संस्कार बन जाते हैं। भारतदेश एक संस्कृत भाषा सम्पन्न वेदानुकूल संस्कार और संस्कृति सम्पन्न रहा है। इस भारत देश में प्रत्येक मनुष्य को यही उपदेश दिया जाता रहा है कि परधन और परनारी विष के समान समझना चाहिए।

अर्थात भारतीय संस्कृति में अर्थ अर्थात धन और काम अर्थात भोग इन दोनों की प्रधानता नहीं सिखाई जाती थी। धर्म और सत्कर्म ही इस भारत देश की शिक्षा सम्पदा रही है। किन्तु हमारे कुछ भारतीय जब विदेश पढ़ने के लिए चले गए, तो वे अंग्रेजी भाषा के जानकार ही नहीं हुए, अपितु अंग्रेजों के समान ही अर्थ और काम अर्थात भोग प्रधान बुद्धि के हो गए।
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जब भी कोई उनको धनवृद्धि की युक्ति बताते थे, और भोगवृद्धि की युक्ति बताते थे, वे उसे तुरन्त ही स्वीकार कर लिया करते थे। स्वयं भी भोगवादी मानसिकता के हो गए थे। अब भला उनको भारतीय संस्कृति का संयम, नियम, तपस्या, व्रत, उपवास आदि धर्म कैसे अच्छा लगता? वे विदेशी शिक्षा से शिक्षित भारतीय (लोग) भारत देश की संस्कृति और संस्कार से ही चिढ़ने लगे थे।

अब धर्म नीति की बातें बुरी लगने लगीं थीं। संस्कृत भाषा विपरीत लगने लगी थी। अर्थ और भोग प्रधान बातों के प्रतिकूल एक भी बात सुनने को तैयार नहीं थे। अन्त में परिणाम यह हुआ, कि अंग्रेजों ने अर्थ अर्थात पदों का और भोग का लोभ देकर मुख्य मुख्य दिशाओं के राजाओं को अपने में मिला लिया।

अब भगवान श्री कृष्ण की बात को ध्यान से सुनिए-
श्रृणोति प्रतिकूलानि द्विषतां वशमेति सः
जो शाशक अपने देश और समाज के प्रतिकूल बातों को मानने लगता है, वह शाशक शत्रुओं के वशीभूत हो जाते हैं।
इस देश (भारतवर्ष) के राजाओं (शासकों)  ने जब अपने देश की संस्कृति संस्कार से विरुद्ध मुसलमानों के अर्थ और भोग प्रधान बातों को स्वीकार कर लिया, तो मुसलमानों के अधीन हो गए। कुछ समय बाद अपने भारतदेश के विरुद्ध अर्थ प्रधान और भोगप्रधान अंग्रेजों की बातों को मान लिया तो अंग्रेजों के अधीन हो गए।

संस्कृत भाषा छोड़ी, संस्कार और संस्कृति छोड़कर पहले उर्दू फारसी भाषा पढ़ने लगे थे, और जब यहां के शाशकों ने अंग्रेजों के स्वतन्त्र भोगवाद को देखा तो अंग्रेजी पढ़कर भोगवादी मानसिकता के हो गए। बस, अब जैसा अंग्रेज करते थे, वैसा करने लगे। अंग्रेज धर्म और नैतिकता विहीन होते हैं तो यहां के अंग्रेजी शिक्षित नेता भी उनके जैसे ही अर्थ और भोग प्रधान बुद्धि के हो गए। संस्कृत भाषा के दर्शनशास्त्र को छोड़कर अंग्रेजों के दर्शनशास्त्र को प्रमाण मानने लगे। 500 साल पुराने भास्कराचार्य आदि की गणित को नकार कर विदेशी गणितज्ञों का प्रमाण देने लगे।

हमारे भारत में उत्पन्न आध्यात्मिक ज्ञान को नकारकर, अधिभौतिक ज्ञान को नकार कर तथा आधिदैविक ज्ञान को नकार कर विदेशियों को ही प्रमाण मानने लगे। पराधीनता के मुख्य कारण तो यही हैं।

अपना संस्कार और संस्कृति तो पूरीतरह छोड़ दी, और उनकी संस्कृति संस्कार को अपने ही देश में कानून बनाकर लागू कर दिया। अब जनता भी क्या करे ?

जो शासक अर्थलोभी और वासनाभोगी होता है, वह शीघ्र ही शत्रुओं के वशीभूत होकर अपने भोग और अर्थ से भी हीन होकर शत्रुओं का दास हो जाता है। अब 27वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताए देश के पराधीन होने का दूसरा कारण भी विचार करने योग्य है। 
मुख्यानमात्यानुत्सृज्य योनिहीनान् निषेवते।
स घोरमापदं प्राप्य नोत्तारमधिगच्छति ।।28।।


भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि हे दुर्योधन! जो शाशक, परम्परा से धर्म को जाननेवाले, अर्थ को जाननेवाले तथा काम को जाननेवाले अपने मुख्य मंत्रियों का त्याग कर देते हैं।
तथा जो योनिहीन अर्थात अपने वंश को न माननेवाले, अपने संस्कारों को न माननेवाले तथा अपने धर्म को न माननेवाले की बातें मानने लगते हैं, उनकी क्या दशा होती है तो परिणाम सुनिए -

स घोरमापदं प्राप्य नोत्तारमधिगच्छति
हमारे धर्म को न माननेवाले, हमारी संस्कृति को न माननेवालों को योनिहीन कहते हैं। अर्थात वे हमारी योनि के जीव नहीं हैं। 
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उद्योग पर्व के अन्तर्गत 10 (उप) पर्व हैं और इसमें कुल 196 अध्याय हैं। इन 10 (उप) पर्वों के नाम हैं-
सेनोद्योग पर्व,
संजययान पर्व,
प्रजागर पर्व,
सनत्सुजात पर्व,
यानसन्धि पर्व,
भगवद्-यान पर्व,
सैन्यनिर्याण पर्व,
उलूकदूतागमन पर्व,
रथातिरथसंख्या पर्व,
अम्बोपाख्यान पर्व।
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शाकाहारी जीवों के विपरीत मांसाहारी जीव होते हैं। शाकाहारी जीवों के लिए मांसाहारी जीवों को योनिहीन कहते हैं। इसी प्रकार भारतदेश की संस्कृति और संस्कार को न माननेवाले विदेशी, विधर्मी लोग, भारतीयों के लिए योनिहीन मनुष्य हैं। 
ऐसे मनुष्यों की बातें माननेवाला शाशक भयानक घोर आपत्ति में फंस जाता है। 
नोत्तारमधिगच्छति

फिर वह उस आपत्ति से मुक्त नहीं हो पाता है। बस, नष्ट होना ही उसका भाग्य है। 

यदि हमारे देश के शाशकों ने अपना संस्कार छोड़कर योनिहीन मुगलशाशकों के अर्थ और भोग को स्वीकार नहीं किया होता, या अंग्रेजी भाषा जाननेवाले कानून बनानेवालों ने योनिहीन अंग्रेजों का अनुसरण नही किया होता तो हमारे भारतीयों जैसी नैतिकता और संयम तथा बीरता धरती में किसी भी देश के मनुष्य में नहीं होती। 

जिनको आर्य शब्द तक का ज्ञान नहीं है, ऐसे हमारे देश के हिन्दू नेता तथा इतिहास वेत्ता ही भारतीय संस्कृति के विरुद्ध और संस्कृत भाषा के तथा संस्कारों के विरुद्ध चल रहे हैं। योनिहीन मनुष्यों की बातें प्रिय लगने लगीं हैं। भारतीयों को ही कहने लगे हैं कि ये बाहर देशों से आए थे। भारतीय लोग विदेशी हैं, ऐसा कहनेवाले लोगों का समूह बन गया है। अब देखते हैं कि यह भारतदेश कितने वर्षों तक स्वतंत्रता का आनन्द ले पाएगा। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण की बातें तो तीनों कालों में सत्य ही होतीं हैं।
अर्थ और काम प्रधान शाशकों का विनाश और पराधीनता ये दोनों ही परिणाम हैं।
 *आचार्यजी (वृंदावन धाम) धर्म नगरी / DN News के संपादकीय मार्गदर्शक मंडल में है एवं विभिन्न प्रदेशों में शास्त्री व आचार्य के विद्यार्थियों को शिक्षा भी देते हैं.  

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