भारत-चीन 1962 युद्ध को लेकर, 'सरदार' की चेतावनी भी नेहरू ने नहीं सुनी
चीनी हमले से पहले 'सरदार' की चेतावनी को भी नेहरू ने नहीं सुना
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चीन ने भारत पर कैसे हमला कर दिया, इस पर संसद में नेहरू लगातार वक्तव्य दे रहे थे। तब करनाल के सांसद स्वामी रामेश्वरनंद व्यंग भरे अंदाज में कहा- चलो अब तो आपको चीन का असली चेहरा दिखने लगा... फिर से नेहरू जब बोलने लगे, विस्तार से बताने लगे, कि चीन ने कैसे-कैसे हमला दिया, तब करनाल के सांसद स्वामी रामेश्वरनंद व्यंग भरे अंदाज में कहा- चलो अब तो आपको चीन का असली चेहरा दिखने लगा। इस टिप्पणी पर नेहरू नाराज हो गए।
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चीन ने भारत पर कैसे हमला कर दिया, इस पर संसद में नेहरू लगातार वक्तव्य दे रहे थे। तब करनाल के सांसद स्वामी रामेश्वरनंद व्यंग भरे अंदाज में कहा- चलो अब तो आपको चीन का असली चेहरा दिखने लगा... फिर से नेहरू जब बोलने लगे, विस्तार से बताने लगे, कि चीन ने कैसे-कैसे हमला दिया, तब करनाल के सांसद स्वामी रामेश्वरनंद व्यंग भरे अंदाज में कहा- चलो अब तो आपको चीन का असली चेहरा दिखने लगा। इस टिप्पणी पर नेहरू नाराज हो गए।
1962 में चीन से सम्मान और अपनी भूमि खोने वाले भारत ने डोकलाम में चीन की औकात समझा दी थी। डोकलाम विवाद पर भारत को बार-बार 1962 की याद दिलाने वाला चीन पीछे मुड़ गया था। पहले कभी स्मरण में नहीं आता कि चीन ने इस तरह से कभी रक्षात्मक रुख अपनाया हो। वो डोकलाम पर मात खाने के बाद चुप हो गया था। इसे कहते हैं पुनर्मुसिको भाव। उसे इस समय समझ में आ गया था, कि ये 1962 का भारत नहीं है। कुछ माह चुप रहने के बाद उसने गलवान में फिर अपनी पुरानी हरकत दोहराई। नतीजा मरने वाले चीनी सैनिकों की संख्या बताने में आज भी चीन चुप्पी साधे है।
डोकलाम पर चीन को शिकस्त देना भारत की अब तक की सबसे बड़ी ऐतिहासिक सफलता थी। विस्तारवादी चीन को युद्ध की पूर्व भूमिका बना रहा था, लेकिन भारत को पीछे न हटता देखकर चीन की आंखें भी फटी रह गई थीं। चीन अपनी विस्तारवादी नीति से बाज नहीं आता है। साम्राज्य विस्तार को लेकर आज विश्व की 18 देशों की सीमाओं से चीन का विवाद है। चाहे वो हांगकांग का मामला हो, भारत का हो, तुर्कमेनिस्तान का हो या ताईवान का। कमोवेश हर देश चीन की विस्तारवादी नीति से परेशान हैं।
नेहरू की पिलपिली चीन नीति का परिणाम यह रहा, कि देश को अपने ही पड़ोसी से 1962 में युद्ध लडऩा पड़ा और मुंह की खानी पड़ी। चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई को गले लगाने और हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नेहरू के उदारवादी नारों को धूर्त चीन ने भारत की कमजोरी समझा। उस युद्ध के 58 सालों के बाद आज भी चीन ने हमारे महत्वपूर्ण अक्साई चीन पर अपना कब्जा जमा रखा है। चीन की तरफ से कब्जाए हुए भारतीय इलाके का क्षेत्रफल 37 हजार 244 वर्ग किमी. है। जितना क्षेत्रफल कश्मीर घाटी का है, उतना ही बड़ा है अक्साई चीन।
सरदार पटेल ने नेहरू को एक पत्र में लिखा था, कि चीन तथा तिब्बत के प्रति उसकी (नेहरू की) नीति से सावधान रहने को कहा था। अपने पत्र में पटेल ने चीन को भावी शत्रु कहा था। पर, चूंकि प्रधानमंत्री नेहरू किसी की सुनते नहीं थे, इसलिए उन्होंने सरदार पटेल की इस अति महत्वपूर्ण सलाह को अनसुना कर दिया। चीन से पराजय के बाद 14 नवंबर 1963, यानी नेहरूजी के जन्मदिन पर संसद में भारत-चीन युद्ध के बाद की स्थिति पर चर्चा हुई। नेहरू ने प्रस्ताव रखते हुए कहा, मुझे दु:ख और हैरानी होती है, कि अपने को विस्तारवादी शक्तियों से लडऩे का दावा करने वाला चीन खुद विस्तारवादी ताकतों के नक्शे कदम पर चलने लगा है।
नेहरू लगातार चीन ने कैसे-कैसे हमला दिया, इस पर वक्तव्य दे रहे थे। तब करनाल के सांसद स्वामी रामेश्वरनंद व्यंग भरे अंदाज में कहा- चलो अब तो आपको चीन का असली चेहरा दिखने लगा। इस टिप्पणी पर नेहरू नाराज हो गए। कहने लगे, अगर माननीय सदस्य चाहें तो उन्हें सरहद पर भेजा जा सकता है। सदन को नेहरू की ये बात समझ में नहीं आई। नेहरू लगातार बोले जा रहे थे। तब एक और सदस्य एचवी कामथ ने कहा, आप बोलते रहिए हम बीच में व्यवधान नहीं डालेंगे। तब नेहरू विस्तार से चीन ने भारत पर हमले से पहले कितनी तैयारी की थी, बताने लगे।
इस बीच स्वामी रामेश्वरानन्द ने तेज आवाज में नेहरू से कहा, कि मैं तो ये जानने को उत्सुक हूं, कि जब चीन तैयारी कर रहा था, तब आप क्या कर रहे थे ? इस बात से नेहरू अपना आपा खो बैठे। उन्होंने कहा, मुझे लगता है, कि स्वामीजी को मेरी बात समझ में नहीं आ रही है और सदन में इतने सारे सदस्यों को भी रक्षा मामलों की पर्याप्त समझ नहीं है। यानी जिस नेहरू को बहुत डेमोक्रेटिक व्यक्ति सिद्ध करने की कोशिश होती रही है, वह दरअसल छोटी सी आलोचना झेलने की माद्दा भी नहीं रखते थे। अपने को गुट-निरपेक्ष आंदोलन का मुखिया बताने वाले भारतीय नेता चीन के साथ संबंधों को मजबूत करना तो छोडिय़े, संबंधों को सामान्य भी बना नहीं सके। तब पूंछा गया था, कि कहां चली गई थी उनकी विदेश मामलों में तथाकथित पकड़ ?
यही गलतियां कश्मीर में भी सामने आती रही हैं। 2019 तक जब तक कि कश्मीर से धारा-370 हटाकर उसे केन्द्र शासित प्रदेश न बना दिया गया, तब तक तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू की राजनीतिक गलतियों की वजह से कश्मीर विवाद का विषय बना रहा। न केवल पाकिस्तान, बल्कि पाकिस्तान के समर्थक देश कश्मीर को अंतर्राष्ट्रीय विवादित क्षेत्र बनाने पर लगातार तुले रहे। हजारों की संख्या में कश्मीरी हिन्दू मारे गए और लाखों कश्मीर से खदेड़ दिए गए। चरमपंथियों और मजहबी उन्मादियों ने एक तरफा इसे इस्लामिक राज्य बनाने की चेष्टा की। धारा-370 के तहत जिस तरह की सुविधाएं कश्मीर राज्य को दी गई थीं, वो एक विधान-दो संविधान की अवधारणा को प्रतिपादित करता था। और भी इस तरह की बहुत सारी गलतियां कश्मीर में दोहराई गईं। जिसका परिणाम आजादी के बाद से आजतक देश भुगत रहा है। भला हो राष्ट्रवादी सरकार का, जिसने कश्मीर का विलय केन्द्र के अधीन किया और धारा-370 समाप्त कर कश्मीर को देश की मुख्य धारा में जोड़ते हुए बाकी राज्यों की तरह बनाया।
चलिए अगर हम मान भी लें, कि देश बरसों की गुलामी के बाद आजाद हुआ था। देश में संसाधन सीमित थे, रक्षा संबंधी संसाधन कम थे, तब प्राकृतिक स्थितियां अनुकूल नहीं थीं। जब चीन ने हमला किया, लेकिन तब देश में सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. आंबेडकर, खुद फिरोज गांधी जैसे बुद्धिजीवी मौजूद थे। पर नेहरू की हमेशा से आदत थी, किसी को न सुनने की। नेहरू की इसी आदत के कारण कश्मीर और चीन जैसी स्थाई समस्याएं भारत को मिली और लगातार सिरदर्द बनी रहीं। - अनुराधा त्रिवेदी, वरिष्ठ पत्रकार, भोपाल।
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