भगवान दत्तात्रेय : पशु-पक्षियों के जीवन व उनके क्रियाकलापों,प्रकृति आदि को गुरु मानने वाले, जिन्हें...


शैवपंथी शिव का अवतार, वैष्णवपंथी विष्णु का अंशावतार मानते हैं
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-राजेशपाठक अवैतनिक संपादक 

"जिससे जितना-जितना गुण मिला है उनको उन गुणों को प्रदाता मानकर उन्हें अपना गुरु माना है, इस प्रकार मेरे 24 गुरु हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, कपोत, अजगर, सिंधु, पतंग, भ्रमर, मधुमक्खी, गज, मृग, मीन, पिंगला, कुररपक्षी, बालक, कुमारी, सर्प, शरकृत, मकड़ी और भृंगी।"  भगवान दत्तात्रेय, 

भगवान दत्तात्रेय जी केवल महायोगी एवं महाज्ञानी ही नहीं, अपितु आत्म विद्या के उपदेशकों में उनका स्थान सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वोपरि था। वे समदर्शी, लोकामन, आदिगुरु एवं विश्वगुरु हैं। उनका बीज मंत्र 'द्रां' है। उन्हें भगवान का पूर्णावतार भी माना जाता है। उन्होंने स्वधर्म की स्थापना की, श्रुतियों का उद्धार किया, सभी को अपने-अपने कर्तव्य कर्म के प्रति प्रेरित किया, सामाजिक वैमनस्य का निवारण किया और भक्तों को त्रिताप से मुक्ति का मार्ग बताकर सच्चे सुख का आभास कराया। भगवान के छठे अवतार दत्तात्रेय जी को पुराणों के अनुसार त्रेतायुग का अवतार माना जाता है।

ईश्वर और गुरु दोनों रूप समाहित होने के कारण जिन्हें 'परब्रह्ममूर्ति सद्गुरु' और 'श्रीगुरुदेवदत्त' भी कहा जाता हैं। जिन्हें गुरु-वंश का प्रथम गुरु, साथक, योगी और वैज्ञानिक माना जाता है, हिंदू मान्यताओं अनुसार, जिन्होंने पारद से व्योमयान उड्डयन की शक्ति का पता लगाया, चिकित्सा शास्त्र में क्रांतिकारी अन्वेषण किया, उनकी जयंती मार्गशीर्ष (अगहन) माह की पूर्णिमा को मनाई जाती है। 

दत्तात्रेय जयंती को दत्त जयंती भी कहा जाता है, जो हिंदू देवता दत्तात्रेय जिन्हें दत्ता के नाम से भी जाना जाता है, के जन्म को इंगित करती है, जो कि सक्षम त्रिदेव, शिव, ब्रह्मा और विष्णु के एक समेकित प्रकार हैं। दत्तात्रेय जयंती प्रमुख रूप से महाराष्ट्र में मनाई जाती है। भगवान दत्तात्रेय को सही तरीके से सभ्य जीवन जीने व व्यक्तियों का मार्गदर्शन करने के लिए जाना जाता है।

जीवन में पशु-पक्षियों के जीवन और उनके कार्यकलापों सहित प्रकृति आदि शिक्षा ग्रहण करने वाले दत्तात्रेय, हिन्दू धर्म-शास्त्रों के अनुसार, त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रचलित विचारधारा के विलय के लिए ही अवतार (जन्म) लिया, इसीलिए उन्हें त्रिदेव का स्वरूप भी कहा जाता है।  

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भगवान दत्तात्रेय को शैवपंथी शिव का अवतार और वैष्णवपंथी विष्णु का अंशावतार मानते हैं. दत्तात्रेय को नाथ संप्रदाय की "नवनाथ परंपरा" का भी अग्रज माना है। यह भी मान्यता है, कि रसेश्वर संप्रदाय के प्रवर्तक भी दत्तात्रेय थे. भगवान दत्तात्रेय से वेद और तंत्र मार्ग का विलय कर एक ही संप्रदाय निर्मित किया था। 

ब्रह्माजी के मानसपुत्र महर्षि अत्रि इनके पिता तथा कर्दम ऋषि की कन्या एवं सांख्य-शास्त्र के प्रवक्ता कपिलदेव की बहन सती अनुसूया इनकी माता थीं। श्रीमद्भागवत में महर्षि अत्रि एवं माता अनुसूया के यहां त्रिदेवों के अंश से तीन पुत्रों के जन्म लेने का उल्लेख मिलता है.

पुराणों अनुसार तीन मुख, छह हाथ वाला त्रि-देवमय स्वरूप है. चित्र में इनके पीछे एक गाय तथा इनके आगे चार कुत्ते दिखाई देते हैं. औदुंबर वृक्ष के समीप इनका निवास बताया गया है. विभिन्न मठ, आश्रम और मंदिरों में इनके इसी प्रकार के चित्र का दर्शन होता है। 

दत्तात्रेय के शिष्य-
उनके प्रमुख तीन शिष्य थे जो तीनों ही राजा थे. दो यौद्धा जाति से थे तो एक असुर जाति से. उनके शिष्यों में भगवान परशुराम का भी नाम लिया जाता है. तीन संप्रदाय (वैष्णव, शैव और शाक्त) के संगम स्थल के रूप में भारतीय राज्य त्रिपुरा में उन्होंने शिक्षा-दीक्षा दी. इस त्रिवेणी के कारण ही प्रतीकस्वरूप उनके तीन मुख दर्शाएं जाते हैं जबकि उनके तीन मुख नहीं थे.

मान्यता अनुसार, दत्तात्रेय ने परशुरामजी को श्रीविद्या-मंत्र प्रदान की थी. यह मान्यता है कि शिवपुत्र कार्तिकेय को दत्तात्रेय ने अनेक विद्याएं दी थी. भक्त प्रह्लाद को अनासक्ति-योग का उपदेश देकर उन्हें श्रेष्ठ राजा बनाने का श्रेय दत्तात्रेय को ही जाता है. दूसरी ओर मुनि सांकृति को अवधूत मार्ग, कार्तवीर्यार्जुन को तंत्र विद्या एवं नागार्जुन को रसायन विद्या इनकी कृपा से ही प्राप्त हुई थी. गुरु गोरखनाथ को आसन, प्राणायाम, मुद्रा और समाधि-चतुरंग योग का मार्ग भगवान दत्तात्रेय की भक्ति से प्राप्त हुआ। 

गुरु पाठ और जाप-
दत्तात्रेय का उल्लेख पुराणों में मिलता है. इन पर दो ग्रंथ हैं 'अवतार-चरित्र' और 'गुरुचरित्र', जिन्हें वेदतुल्य माना गया है. इसकी रचना किसने की यह हम नहीं जानते. मार्गशीर्ष 7 से मार्गशीर्ष 14, यानी दत्त जयंती तक दत्त भक्तों द्वारा गुरुचरित्र का पाठ किया जाता है. इसके कुल 52 अध्याय में कुल 7491 पंक्तियां हैं. इसमें श्रीपाद, श्रीवल्लभ और श्रीनरसिंह सरस्वती की अद्भुत लीलाओं व चमत्कारों का वर्णन है.

दत्त पादुका-
ऐसी मान्यता है कि दत्तात्रेय नित्य प्रात: काशी में गंगाजी में स्नान करते थे. इसी कारण काशी के मणिकर्णिका घाट की दत्त पादुका दत्त भक्तों के लिए पूजनीय स्थान है. इसके अलावा मुख्य पादुका स्थान कर्नाटक के बेलगाम में स्थित है. देशभर में भगवान दत्तात्रेय को गुरु के रूप में मानकर इनकी पादुका को नमन किया जाता है.
'गुरुचरित्र' का श्रद्धा-भक्ति के साथ पाठ और इसी के साथ दत्त महामंत्र 'श्री दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा' का सामूहिक जप भी किया है. त्रिपुरा रहस्य में दत्त-भार्गव-संवाद के रूप में अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों का उपदेश मिलता है.

दत्तात्रेय जयंती उत्सव-
माणिक प्रभु जैसे अभयारण्य में 7-दिवसीय उत्सव का आयोजन करते हैं जो भगवान दत्ता के लिए प्रतिबद्ध है। यह एक बहुत बड़ा उत्सव होता है जो एकादशी से शुरू होता है और पूर्णिमा तक जारी रहता है। इसके अलावा, जयंती के सात दिन पहले, श्री गुरुचरित्र का पाठ एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है जो उत्सव के शुरू होने का प्रतीक है। हिंदू कैलेंडर के अनुसार, दत्त जयंती मार्गशीर्ष महीने में पूर्णिमा के दिन आती है।

दत्तात्रेय जयंती का महत्वभक्तों का विश्वास है कि वे दत्तात्रेय जयंती के दिन पूजा अनुष्ठानों का पालन करते हुए वह जीवन के सभी हिस्सों में लाभ पा सकते हैं, लेकिन पवित्र पूर्व संध्या की प्राथमिक आवश्यकता यह है कि यह लोगों को पूर्वजों की समस्याओं और अन्य मुद्दों से बचाती है। इस दिन देवता की पूजा और प्रार्थना करने से उत्साही लोगों को एक समृद्ध अस्तित्व प्राप्त करने में मदद मिलती है।

दत्तात्रेय जयंती पूजा के लाभ-
दत्तात्रेय उपनिषद के अनुसार, दत्त जयंती की पूर्व संध्या पर भगवान दत्ता के लिए व्रत और पूजा करने वाले भक्तों को उनका आशीर्वाद और कई तरह के लाभ मिलते हैं-
- भक्तों को उनकी सभी इच्छित चीजों और धन की प्राप्ति होती है।
- सर्वोच्च ज्ञान के साथ-साथ जीवन के उद्देश्य और लक्ष्यों को पूरा करने में सहायता मिलती है।
- पर्यवेक्षकों को अपनी चिंताओं के साथ-साथ अज्ञात भय से छुटकारा मिलता है।
- हानिकारक ग्रहीय कष्टों का निवारण
- सभी मानसिक कष्टों के उन्मूलन और पैतृक मुद्दों से भी छुटकारा मिलता है।
- इससे जीवन में नेक रास्ते पाने में सहायता मिलती है।
- आत्मा को सभी कर्म बंधों से मुक्त करने में सहायता मिलती है।
- आध्यात्मिकता के प्रति झुकाव विकसित होता है।

पूजा-विधान और उपवास-
भक्त सूर्योदय से पहले उठकर पवित्र स्नान करते हैं। फिर दत्त जयंती का व्रत रखने का अनुष्ठान करते हैं।
पूजा के समय, भक्तों को मिठाई, अगरबत्ती, फूल और दीपक चढ़ाने चाहिए।
भक्तों को पवित्र मंत्रों और धार्मिक गीतों का पाठ करना चाहिए और जीवनमुक्त गीता और अवधूत गीता के श्लोकों को पढ़ना चाहिए।
पूजा के समय दत्ता भगवान की प्रतिमा पर हल्दी पाउडर, सिंदूर और चंदन का लेप लगाएं।
आत्मा और मन की शुद्धि व ज्ञान के लिए, भक्तों को ‘ओम श्री गुरुदेव दत्ता’ और ‘श्री गुरु दत्तात्रेय नमः’ जैसे मंत्रों का पाठ करना चाहिए

दत्तात्रेय बीज मंत्र-
दक्षिणामूर्ति बीजम च रामा बीकेन सम्युक्तम।
द्रम इत्यक्षक्षाराम गनम बिंदूनाथाकलातमकम
दत्तास्यादि मंत्रस्य दत्रेया स्यादिमाश्रवह
तत्रैस्तृप्य सम्यक्त्वं बिन्दुनाद कलात्मिका
येतत बीजम् मयापा रोक्तम् ब्रह्म-विष्णु- शिव नमकाम

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रहस्य / कथा- 
सत्ययुग के प्रथम स्वायम्भुव मन्वन्तर के प्रारम्भ में भगवान दत्तात्रेय प्रकट हुए। प्राणियों के दु:ख एवं ताप के निवारण हेतु उन्होंने स्वेच्छा से आर्विभूत होकर लीला की। महाप्रलय पर्यन्त उनका दीर्घ अस्तित्व माना गया है। कहा जाता है, जब वेद नष्टप्राय हो गए, चातुर्य वर्ण संक्रीर्ण हुए, धर्म में शैथिल्य आया, अधर्म की अभिवृद्धि होने लगी और धर्म का ह्रास होने लगा तो ऐसे विषम समय में लुप्त श्रुतियों के उद्धार हेतु भगवान ने दत्तात्रेय नाम से अवतार लिया। वे श्री हरि विष्णु के छठे अवतार थे। 

जीवों का अज्ञानान्धकार निवारण का क्रम अविरल रूप में चलाने के लिए उन्होंने अवतार ग्रहण किया। उनकी उपासना महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, आंधप्रदेश आदि में की जाती है। उन्होंने मार्गशीर्ष पूर्णिमा को सन्ध्या काल में अवतार लिया, इसीलिए उनकी जयंती सायंकाल में मनाई जाती है। उस दिन आकाश में दिखाई देने वाले मृगशिरा नक्षत्र के तीन तारों को भगवान त्रिमूर्ति (दत्तात्रेय) समझकर उनकी पूजा, आरती एवं प्रदक्षिणा करते हैं और दत्तात्रेय के दर्शन होने का हर्ष अभिव्यक्त करते हैं। 

उनके अवतरण के विषय में पुराणों में उल्लेख है] ब्रह्माजी के मानस पुत्र महर्षि अत्रि का विवाह देवहूति की सुपुत्री अनसूया से सम्पन्न हुआ। उन्होंने उत्कट तपस्या द्वारा विश्व की महान् दिव्य शक्ति को अपने पुत्ररूप में अवतरण कराने का निश्चय किया। दोनों पति-पत्नी ने घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर त्रिदेव उनके सम्मुख प्रकट हुए और वर मांगने को कहा। 
महर्षि अत्रि ने वर मांगा- 'विश्व की एक महान् दिव्य शक्ति जगत् कल्याण के लिए मेरे पुत्र रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हो।' 
त्रिदेव बोले- 'हमने अपने को तेरे पुत्र के रूप में दान दे दिया।' अत: दान वाचक 'दत्त' शब्द और अत्रि का पुत्र 'आत्रेय', इन दोनों शब्दों के मिलन से अत्रि-अनसूया के सुपुत्र का नाम दत्त+आत्रेय', 'दत्तात्रेय' पड़ा।

दत्तपुराण के अनुसार अत्रि का अर्थ है त्रिगुणातीत चैतन्य और अनसूया का अर्थ है पराप्रकृति। इन दोनों से भगवान दत्तात्रेय प्रकट हुए। पुराण के अनुसार अनसूया ने अपनी अमोघ सतीत्व शक्ति के प्रभाव से पातिव्रत्य की परीक्षा लेने के लिए आए हुए त्रिदेव को शिशु बनाकर अपना स्तनपान कराया था। उसका तात्विक अर्थ है, असूया (ईर्ष्या)- रहित अवस्था में त्रिगुण का प्राधान्य नहीं रहता। इसके बाद सती अनसूया महासती पद को प्राप्त हुई। त्रिदेव ने उन्हें भी वचन दिया था, कि वे पुत्र रूप में उनके पास रहेंगे। 

मार्कण्डेय पुराण के अनुसार उनका प्रथम पुत्र सोम (चन्द्र) ब्रह्मा का अवतार रजोगुण प्रधान था, द्वितीय पुत्र दत्तात्रेय विष्णु का अवतार सत्व गुण प्रधान था, तृतीय पुत्र दुर्वासा महेश्वर का अवतार तमो गुण प्रधान था।भगवान दत्तात्रेय ने अवतरित होकर साधक जीवन का अभिनय किया। उन्होंने पिता अत्रि की आज्ञा से गौतमी वन में दीर्घकाल पर्यन्त घोर तपस्या द्वारा परम तत्व की उपासना कर परमसिद्धि प्राप्त की। वह स्थान 'आत्मतीर्थ' नाम से प्रसिद्ध है। इसे दत्तात्रेय तीर्थ भी कहते हैं, क्योंकि लीला हेतु उन्होंने शिष्य भाव धारण किया था। 

उनका सदुपदेश था- जो व्यक्ति शिष्यत्व भाव रखकर सरल, विनम्र एवं मुमुक्षु होकर समग्र जगत को गुरु रूप में देखता है, वह साधना पथ पर अग्रसर होकर जगद्गुरु एवं विश्व गुरु बन सकता है। मराठी भाषा के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'श्री गुरु चरित्र' में लिखा है- यज्ञोपवीत संस्कार के बाद सोम और दुर्वासा ने अपना स्वरूप तथा तेज दत्तात्रेय को प्रदान कर तपस्या हेतु अरण्य के लिए प्रस्थान किया। अत: दत्तात्रेय तीन स्वरूप वाले (त्रिमूर्ति) और तीन तेजों से युक्त त्रिशक्ति सम्पन्न थे। इस प्रकार वे त्रिगुणात्मक त्रिमूर्ति, ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर—त्रिदेव का एकीभूत रूप थे। 

'दत्तात्रेय-सर्वस्व' नामक ग्रंथ में दत्तात्रेय त्रिमूर्ति का आध्यात्मिक रहस्य बताया गया है- वे प्रणव (ऊँ) स्वरूप हैं। उनके तीन मस्तक प्रणव का व्यक्त स्वरूप हैं। वेदमाता गायत्री, गाय के रूप में उनके समीप खड़ी है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—ये चारों चार श्वानों (कुत्तों) के रूप में उनके चरणों के समीप रहते हैं। उनके छ: हाथ षडैश्वर्य के प्रतीक हैं और दो पैर श्रेय एवं प्रेय के द्योतक हैं। अत: उन्हें विकार रहित होने, उन्मत्तवत् आचरण करने तथा अव्यक्त आचार सम्पन्न होने के कारण अवधूत श्रेष्ठ कहा गया है। उन्होंने जगत् के चौबीस साधारण जीवों को गुरु मान कर दिव्य भावपूर्ण शिक्षा ग्रहण की और फिर विरक्ति ली थी।

दत्तात्रेय जी ने अपनी अवधूती मस्ती तथा चौबीस गुरुओं से प्राप्त ज्ञान के आधार पर अपने उपदेशों द्वारा श्रेष्ठ महापुरुषों को कृतार्थ किया। उन्होंने जम्भासुर दैत्य, जिसने स्वर्ग को परास्त किया था, के विरुद्ध देवताओं पर कृपा व मार्गदर्शन कर उन्हें युद्ध में विजयी किया और पुन: स्वर्ग की प्राप्ति करवा दी। कृतयुग में शिव पुत्र कार्तिकेय को स्वात्म संवित् का महाउपदेश उन्होंने अवधूती गीता के रूप में दिया। महर्षि संस्कृति को अवधूत के लक्षण, अवधूती स्थिति एवं परमोच्य अवधूत ज्ञान भगवान दत्तात्रेय की असीम अनुकम्पा से ही प्राप्त हुआ था। इसी प्रकार परशुराम तथा गोरक्षनाथ को योग तथा सहज समाधि एवं परमोच्च ज्ञान का उपदेश दिया। 

त्रेता युग में राजा अलर्क प्रभृत्ति को योग विद्या एवं अध्यात्म विद्या का उपदेश देकर कृतार्थ किया। इसी प्रकार प्रह्लाद, पुरुरवा, यदु, राजा कार्तवीर्य आदि को परम वैराग्य, संतोष, विजयश्री त्रिलोक प्रसिद्धि के उपदेश देकर तेजस्वी व यशस्वी बनाया। कलियुग में शंकराचार्य, गोरक्षनाथ, महाप्रभु, नागार्जुन आदि भी उनके अनुग्रह से धन्य हुए। संत ज्ञानेश्वर, जनार्दन स्वामी, एकनाथ, दासोपंत, तुकाराम ने उनका प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त किया था। अत: उनके गुणों के आधार पर उन्हें बहुत से नामों से अलंकृत किया गया जैसे समस्त सिद्धों के राजा होने के कारण 'सिद्धराज', देवताओं का संरक्षण करने के कारण 'देवदेवेश्वर', सदा ज्ञान का दान करने के कारण 'गुरुदेव' या 'सद्गुरु' कहते हैं। उन्हें योगिराज, अविनाश, धर्मविग्रही, भक्त के स्मरण करते ही तत्क्षण उसके पास पहुंच जाने के कारण स्मृतिगामी भी कहा जाता है। 

आद्य शंकराचार्य जी ने उन्हें त्रिभुवनजयी परमावधूत कहा। वे कहते हैं, दत्तात्रेय जी प्रात: वाराणसी में स्नान करते हैं, कोल्हापुर के देवी-मंदिर में जप-ध्यान करते हैं, मातापुर में भिक्षा ग्रहण करते हैं तथा सह्याद्रि में विश्राम करते हैं। इसी प्रकार वे पांचालपुर में भोजन करते हैं, पण्ढरपुर में चन्दन मिश्रित तिलक करते हैं, गाणगापुर में योग साधना करते हैं और कुरुक्षेत्र के स्यमन्तक तीर्थ में आचमन करते हैं। इस प्रकार वे प्रात:काल से रात्रि पर्यन्त लीला करने के बहाने विभिन्न स्थानों में विचरण करते हैं।

भगवान दत्तात्रेय का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण भारत देश है। उनके नाम पर अनेक सम्प्रदाय हैं जैसे- दासोपन्त, महानुभाव, गोसाईं तथा गुरु चरित्र आदि। महाराष्ट्र में उनके सोलह अवतार उनकी जन्मतिथि के अनुसार भव्य रूप से मनाए जाते हैं। वहां के विद्वान संत श्री दासोपंत को उनका सत्रहवां अवतार माना जाता है। उनके जीवन एवं कार्य वर्णित धर्मग्रन्थ 'श्री गुरु चरित्र' का नित्य पठन किया जाता है। 

दत्त तीर्थों व क्षेत्रों की यात्राएं  पुण्यदायक मानी जाती हैं। गुजरात में 'गिरनार' श्री दत्तात्रेय का सिद्धपीठ है। त्रिपुरा रहस्य के अनुसार उनका एक आश्रम गन्धमादन पर्वत पर भी है। उनकी गुरुचरण-पादुकाएं वाराणसी तथा आबू पर्वत आदि कई स्थानों में हैं। 
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