श्रीकृष्ण का नाम लड्डू गोपाल कैसे पड़ा ?
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- राजेश पाठक संपादक
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर बनाएं ‘गर्भरक्षक श्रीवासुदेव सूत्र’
दीर्घायु और निरोगी उत्तम संतान की प्राप्ति प्रत्येक दंपती की इच्छा होती है, परन्तु कुछ स्त्रियों को संतान प्राप्ति में कठिनाई आती है। उनका गर्भ ठहरता नहीं अथवा कुछ ही सप्ताह में गर्भपात हो जाता है या जन्म लेने के बाद संतान की शीघ्र मृत्यु हो जाती है। यह अत्यंत पीड़ादायक होता है।
ऐसी स्थिति में गर्भ की रक्षा के लिए श्रीमद् भागवत में भगवान कृष्णद्वैपायन व्यास ने एक अमोघ और चमत्कारिक उपाय बताया है। यह उपाय है- गर्भरक्षक श्रीवासुदेव सूत्र। यह एक प्रकार का सूत्र होता है, जिस मंत्रों से अभिमंत्रित करके महिला को बांधा जाता है, जिससे गर्भ की रक्षा होती है। भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तरा के गर्भ की रक्षा के लिए इसी सूत्र का प्रतिपादन किया था। वैसे तो यह सूत्र किसी भी समय किसी भी काल में बनाया जा सकता है किंतु श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का दिन सर्वथा उपयुक्त है।
मंत्र-
अन्त:स्थ: सर्वभूतानामात्मा योगेश्वरो हरि:।
स्वमाययावृणोद् गर्भ वैराट्या: कुरुतन्तवे।।
अर्थात, समस्त प्राणियों के हृदय में आत्मा रूप से स्थित योगेश्वर श्रीहरि ने कुरुवंश की वृद्धि के लिए उत्तरा के गर्भ को अपनी माया के कवच से ढक दिया। मंत्र का प्रभाव उपरोक्त मंत्र उन कुल-वधुओं के लिए चमत्कारिक रूप से काम करता है। जिन्हें गर्भ तो रहता है, किंतु पूर्ण प्रसव नहीं हो पाता, बीच में ही खंडित हो जाता है। यह उन महिलाओं के लिए भी कल्प-वृक्ष के समान फलदाता है। जिनकों बच्चा सर्वांगपूर्ण पैदा होता है, किंतु जीवित नहीं रहता। इस महामंत्र का गर्भस्थ शिशु के मन पर भी बड़ा चमत्कारिक प्रभाव होता है। उसके संस्कार बदल जाते हैं, वह बुरी शक्तियों व बुरी दृष्टि (नजर), रोगादि से सुरक्षित रहता है। इस महामंत्र के प्रभाव से भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य आयुध उस महिला के गर्भ की रक्षा करते हैं, जो श्रद्धापूर्वक श्रीवासुदेव सूत्र को धारण करती है। यह सूत्र बड़ा ही उग्र, साक्षात फलदाता है।
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बनाएं गर्भरक्षक श्रीवासुदेव सूत्र-
‘गर्भरक्षक सूत्र’ जिस सौभाग्वयती स्त्री के लिए बनाना हो उसके और सूत्र बनाने वाले के चित्त अत्यंत शुद्ध और पवित्र होने चाहिए। दोनों के मन में रक्षा सूत्र के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास होना चाहिए। जिस महिला के लिए सूत्र बनाना हो, उसे स्नानादि के बाद शुद्ध वस्त्र पहनाकर भगवान श्रीकृष्ण के चरणोदक और तुलसीदल की प्रसादी दें। इसके बाद श्रीगणेश-गौरी का पूजन और नवग्रहों की यथाशक्ति शांति कराकर पूर्वाभिमुख खड़ी कर दें।
अब एक केसरिया रंग का रेशम का डोरा लें। रेशम के डोरे को मस्तक से पैर तक सात बार नाप लें। डोरा इतना लंबा हो किबीच में गांठ न बांधना पड़े। इसके बाद ऊपर दिए मंत्र के आदि में ऊं तथा अंत में स्वाहा बोलकर 21 बार जप करके माला की गांठ की भांति गांठ लगाते जाएं। इस प्रकार 21 गांठ लगाकर सूत्र की विधिवत वैष्णव मंत्रों से प्राण प्रतिष्ठा और पूजन करें। इसके बाद शुभ समय में भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए गर्भिणी और गर्भ की रक्षा की प्रार्थनाकर उस डोरे को वाम हस्तमूल, गले अथवा अत्यंत पीड़ा के समय नाभि के नीचे कमर में बांध दें।
यदि इस वासुदेव सूत्र का निर्माण और बंधन विधिवत हो गया, तो गर्भ कभी नष्ट नहीं हो सकता। रेशम के डोरे के स्थान पर कुंवारी कन्या के द्वारा काता केसरिया रंग में रंगा कच्चा सूत भी ले सकते हैं। किन्तु यह सूत अत्यंत महीन होता है। इसके टूटने का डर होता है। यदि सूत ले रहे हैं तो अत्यंत सावधानी रखनी होती है।
देवकी के आठवें पुत्र से ही कंस की मृत्यु क्यों ?
पहले दूसरे या तीसरे से क्यों नहीं...!
अन्तर्मन के निर्देश को ही कृष्ण कहा गया है। रात्रि को अविद्या कहा है। अज्ञान ही अंधकार है।अष्टमी का अर्थ है अष्टांग योग। द्वापर युग का अर्थ है जब अंतर्मन प्रकृति दो गुणों से परे हो जाये। रजो और तमो से परे हो जाये। द्वि + पर अर्थात द्वापर। जब दो गुणों से परे होंगे तो द्वापर आ गया। मोह ही कंस है। देह को ही कारावास कहा गया है। मनुष्य के अंतर्मन की देवी सम्पदी ही देवकी है। पुण्य ही वासुदेव है। जब मोह रुपी कंस ने देवी रूपी साधक को भय और अज्ञान के कारण देह रूपी कारावास में डाला तो गर्जना हुई कि मोह रूपी कंस का देवकी का आठवां पुत्र ही नाश करेगा।
यहाँ आठवां पुत्र और कोई नही बल्कि अष्टांग योग का अंतिम चरण है। मनुष्य जब यम, नियम, आसन, प्राणयाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि द्वारा अष्टांग योग को पूर्ण करता है तो देह रूपी जेल में भी कृष्ण रूपी अंतरात्मा का जन्म होता है। क्यों होता है? कंस अर्थात मोह के नाश हेतु होता है। इसे ही जम्माष्टमी कहा है। अर्थात अष्टांग योग का जन्म होना ही जन्माष्टमी है। जब तक अंदर योग के अंतिम चरण समाधि का जन्म नही होता है तब तक कंस रुपी मोह और अविद्या रूपी रात्रि निरन्तर तुम्हे निगलती रहेगी। युगों युगों से भटकते हुए आज फिर एक अवसर मिला है। बाहर की जन्माष्टमी के साथ साथ जिस दिन आंतरिक दैवीय जन्माष्टमी का उदय हो जाएगा, उस दिन तुम्हारे घर में कृष्ण की किलकारी होने लगेगी। वरना, यह जन्म भी निकल रहा है। निकल रहा है।
जन्माष्टमी के दिन बछड़े सहित गाय की मूर्ति की पूजा करें। मान्यता है, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर ऐसा करने से संतान से जुड़ी समस्या दूर हो जाती हैं, इस दिन गाय की मूर्ति के साथ लड्डू गोपाल की भी पूजा करें। इससे संतान से जुड़ी समस्या दूर हो जाती है,जन्माष्टमी के दिन सात कन्याओं के बीच सफेद मिठाई या खीर बांटे। इससे नौकरी से जुड़ी समस्या में राहत मिलेगी।जिस तरह प्रत्येक धर्म में उसका एक धार्मिक ग्रंथ होता है, उसी प्रकार से हिन्दू धर्म में गीता को विशेष महत्व या दर्जा प्राप्त है। गीता के रूप में श्रीकृष्ण ने मानव को जीवन को जीने की कला सिखाया। साथ ही कर्म का महत्व भी समझाया है। मान्यता है, कि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन श्री कृष्ण की चालीसा पाठ करने से भगवान श्रीकृष्ण की विशेष कृपा बनी रहती है और जीवन का हर दु:ख और विपत्ति समाप्त हो जाती है-श्रीकृष्ण चालीसा
॥ दोहा॥
बंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम।
अरुण अधर जनु बिम्बा फल, पिताम्बर शुभ साज॥
जय मनमोहन मदन छवि, कृष्णचन्द्र महाराज।
करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज॥
चौपाई
जय यदुनन्दन जय जगवन्दन। जय वसुदेव देवकी नन्दन॥
जय यशुदा सुत नन्द दुलारे। जय प्रभु भक्तन के दृग तारे॥
जय नट-नागर नाग नथैया। कृष्ण कन्हैया धेनु चरैया॥
पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो। आओ दीनन कष्ट निवारो॥
वंशी मधुर अधर धरी तेरी। होवे पूर्ण मनोरथ मेरो॥
आओ हरि पुनि माखन चाखो। आज लाज भारत की राखो॥
गोल कपोल, चिबुक अरुणारे। मृदु मुस्कान मोहिनी डारे॥
रंजित राजिव नयन विशाला। मोर मुकुट वैजयंती माला॥
कुण्डल श्रवण पीतपट आछे। कटि किंकणी काछन काछे॥
नील जलज सुन्दर तनु सोहे। छवि लखि, सुर नर मुनिमन मोहे॥
मस्तक तिलक, अलक घुंघराले। आओ कृष्ण बांसुरी वाले॥
करि पय पान, पुतनहि तारयो। अका बका कागासुर मारयो॥
मधुवन जलत अग्नि जब ज्वाला। भै शीतल, लखितहिं नन्दलाला॥
सुरपति जब ब्रज चढय़ो रिसाई। मसूर धार वारि वर्षाई॥
लगत-लगत ब्रज चहन बहायो। गोवर्धन नखधारि बचायो॥
लखि यसुदा मन भ्रम अधिकाई। मुख महं चौदह भुवन दिखाई॥
दुष्ट कंस अति उधम मचायो। कोटि कमल जब फूल मंगायो॥
नाथि कालियहिं तब तुम लीन्हें। चरणचिन्ह दै निर्भय किन्हें॥
करि गोपिन संग रास विलासा। सबकी पूरण करी अभिलाषा॥
केतिक महा असुर संहारयो। कंसहि केस पकडि़ दै मारयो॥
मात-पिता की बन्दि छुड़ाई। उग्रसेन कहं राज दिलाई॥
महि से मृतक छहों सुत लायो। मातु देवकी शोक मिटायो॥
भौमासुर मुर दैत्य संहारी। लाये षट दश सहसकुमारी॥
दै भिन्हीं तृण चीर सहारा। जरासिंधु राक्षस कहं मारा॥
असुर बकासुर आदिक मारयो। भक्तन के तब कष्ट निवारियो॥
दीन सुदामा के दु:ख टारयो। तंदुल तीन मूंठ मुख डारयो॥
प्रेम के साग विदुर घर मांगे। दुर्योधन के मेवा त्यागे॥
लखि प्रेम की महिमा भारी। ऐसे श्याम दीन हितकारी॥
भारत के पारथ रथ हांके। लिए चक्र कर नहिं बल ताके॥
निज गीता के ज्ञान सुनाये। भक्तन ह्रदय सुधा वर्षाये॥
मीरा थी ऐसी मतवाली। विष पी गई बजाकर ताली॥
राना भेजा सांप पिटारी। शालिग्राम बने बनवारी॥
निज माया तुम विधिहिं दिखायो। उर ते संशय सकल मिटायो॥
तब शत निन्दा करी तत्काला। जीवन मुक्त भयो शिशुपाला॥
जबहिं द्रौपदी टेर लगाई। दीनानाथ लाज अब जाई॥
तुरतहिं वसन बने ननन्दलाला। बड़े चीर भै अरि मुँह काला॥
अस नाथ के नाथ कन्हैया। डूबत भंवर बचावत नैया॥
सुन्दरदास आस उर धारी। दयादृष्टि कीजै बनवारी॥
नाथ सकल मम कुमति निवारो। क्षमहु बेगि अपराध हमारो॥
खोलो पट अब दर्शन दीजै। बोलो कृष्ण कन्हैया की जै॥
॥ दोहा ॥
यह चालीसा कृष्ण का, पाठ करै उर धारि।
अष्ट सिद्धि नवनिधि फल,लहै पदारथ चारि॥
आरती-
आरती कुंजबिहारी की,
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की
गले में बैजंती माला,
बजावै मुरली मधुर बाला ।
श्रवण में कुण्डल झलकाला,
नंद के आनंद नंदलाला ।
गगन सम अंग कांति काली,
राधिका चमक रही आली ।
लतन में ठाड़े बनमाली
भ्रमर सी अलक,
कस्तूरी तिलक,
चंद्र सी झलक,
ललित छवि श्यामा प्यारी की,
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की
आरती कुंजबिहारी की...
कनकमय मोर मुकुट बिलसै,
देवता दरसन को तरसैं,
गगन सों सुमन रासि बरसै,
बजे मुरचंग,
मधुर मिरदंग,
ग्वालिन संग,
अतुल रति गोप कुमारी की,
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की
आरती कुंजबिहारी की...
जहां ते प्रकट भई गंगा,
सकल मन हारिणि श्री गंगा
स्मरन ते होत मोह भंगा
बसी शिव सीस,
जटा के बीच,
हरै अघ कीच,
चरन छवि श्रीबनवारी की,
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की
आरती कुंजबिहारी की...
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श्रीकृष्ण का नाम लड्डू गोपाल कैसे पड़ा ?
भगवान श्रीकृष्ण के अनेक प्रचलित नाम हैं- श्याम, मोहन, बंसीधर, कान्हा और न जाने कितने, लेकिन इनमें से एक प्रसिद्ध नाम है लड्डू गोपाल। क्या आपको पता है भगवान कृष्ण का नाम लड्डू गोपाल क्यों पड़ा ?
ब्रज भूमि में बहुत समय पहले श्रीकृष्ण के परम भक्त रहते थे, जिनका नाम था कुम्भनदास जी। उनके एक पुत्र थे रघुनंदन।
कुंम्भनदास जी के पास बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण जी का एक विग्रह था। वे हर समय प्रभु भक्ति में लीन रहते और पूरे नियम से श्रीकृष्ण की सेवा करते। वे उन्हें छोडक़र कहीं नहीं जाते थे, जिससे उनकी सेवा में कोई विघ्न ना हो।
एक दिन वृन्दावन से उनके लिए भागवत कथा करने का न्योता आया। पहले तो उन्होंने मना किया, परन्तु लोगों के जोर देने पर वे जाने के लिए तैयार हो गए, कि भगवान की सेवा की तैयारी करके वे कथा करके प्रतिदिन वापस लौट आया करेंगे व भगवान का सेवा नियम भी नहीं छूटेगा।
अपने पुत्र को उन्होंने समझाया, कि मैंने भोग बना दिया है, तुम ठाकुर जी को समय पर भोग लगा देना और वे चले गए। रघुनंदन ने भोजन की थाली ठाकुर जी के सामने रखी और सरल मन से आग्रह किया कि ठाकुर जी आओ भोग लगाओ। उसके बाल मन में यह छवि थी, कि वे आकर अपने हाथों से भोजन करेगें जैसे हम खाते हैं। उसने बार-बार आग्रह किया, लेकिन भोजन तो वैसे ही रखा था।
अब रघुनंद उदास हो गया और रोते हुए पुकारा- ठाकुरजी आओ भोग लगाओ। ठाकुरजी ने बालक का रूप धारण किया और भोजन करने बैठ गए और रघुनंदन भी प्रसन्न हो गया।
रात को कुंम्भनदास जी जब लौटे, तो उन्होंने रघुनंदन से पूछा- भोग लगाया था बेटा ?
रघुनंदन ने कहा हाँ। उन्होंने प्रसाद मांगा तो पुत्र ने कहा- ठाकुरजी ने सारा भोजन खा लिया।
उन्होंने सोचा बच्चे को भूख लगी होगी तो उसने ही स्वयं खा लिया होगा। फिर ये रोज का नियम हो गया, कि कुंम्भनदास जी भोजन की थाली लगाकर जाते और रघुनंदन ठाकुरजी को भोग लगाते। जब प्रसाद मांगते तो एक ही जवाब मिलता कि सारा भोजन उन्होंने खा लिया।
तब कुंम्भनदास जी को लगा, कि पुत्र झूठ बोलने लगा है! लेकिन क्यों? उन्होंने उस दिन लड्डू बनाकर थाली में सजा दिए और छुप कर देखने लगे कि बच्चा क्या करता है ?
रघुनंदन ने प्रतिदिन की भाँति ठाकुरजी को पुकारा, तो ठाकुरजी बालक के रूप में प्रकट हो कर लड्डू खाने लगे। यह देख कर कुंम्भनदास जी दौड़ते हुए आये और प्रभु के चरणों में गिरकर विनती करने लगे। उस समय ठाकुरजी के एक हाथ मे लड्डू और दूसरे हाथ का लड्डू मुख में जाने को ही था, कि वे जड़ हो गए।
उसके बाद से उनकी इसी रूप में पूजा की जाती है और वे ‘लड्डू गोपाल’ कहलाये जाने लगे !
जय हो लड्डू गोपाल जी की !
आप सभी को राधे-राधे, जय श्रीकृष्णा
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