सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय देकर बताया- पुराने कानूनों को भी दिया जा सकता है नया तेवर, याद आ गया कैसे...
राजीव सरकार लाई थी सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ मुस्लिम महिला अधिनियम
...शाह बानो केस; जानें क्या हुआ था 4 दशक पहले
महिलाओं के भरण-पोषण को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए (10 जुलाई 2024) के ऐतिहासिक निर्णय ने राजीव गाँधी के समय 1985 के शाह बानो केस की यादें ताजा कर दीं।
पीठ ने यह भी आदेश दिया- आवेदन लम्बित रहने के दौरान अगर महिला को तलाक दिया जाता है तो वह विवाह अधिकार संरक्षण संबंधी 2019 के अधिनियम का सहारा ले सकती हैं।
पीठ ने कहा- मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 1986 धर्मनिरपेक्ष कानून पर हावी नहीं होगा।
पीठ ने यह भी कहा- 2019 के अधिनियम के तहत उपाय सीआरपीसी की धारा-125 के अंतर्गत उपाय के अतिरिक्त है। सुनें-
तब सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मचा था हंगामा
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के कारण मुस्लिम पति द्वारा अपनी तलाकशुदा पत्नी को विशेष रूप से ‘इद्दत’ अवधि (3 महीने) से परे, भरण-पोषण की राशि देने के वास्तविक दायित्व को लेकर विवाद पैदा हो गया था। इस फैसले से पूरे देश में हंगामा मच गया था। राजीव गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन केंद्र सरकार ने संसद में फैसले का बचाव करने के लिए तत्कालीन केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान को मैदान में उतारा था। हालांकि, यह रणनीति उल्टी पड़ गई क्योंकि मुस्लिम धर्मगुरुओं और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने फैसले का कड़ा विरोध किया।
राजीव सरकार लाई थी "मुस्लिम महिला अधिनियम"
राजीव गांधी सरकार ने SC के फैसले के बाद अपने रुख में बदलाव करते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करने के लिए एक और मंत्री जेड. ए. अंसारी को मैदान में उतारा। इससे खान नाराज हो गए और उन्होंने सरकार छोड़ दी। खान इस समय केरल के राज्यपाल हैं।
दूसरी शादी करने वाले शौहर को न
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धर्म नगरी / DN News
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दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा-125 के अंतर्गत मुस्लिम महिला के भी अपने पति से गुजारा भत्ता की मांग कर सकने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के (10 जुलाई 2024) निर्णय ने 1985 के शाह बानो बेगम मामले में दिये सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय की यादें ताजा कर दीं। CrPC की धारा-125 के धर्मनिरपेक्ष प्रावधान के अंतर्गत मुस्लिम महिलाओं को भरण-पोषण का भत्ता देने का विवादास्पद मुद्दा 1985 में राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आया था, जब मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामले में संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से यह फैसला सुनाया था कि मुस्लिम महिलाएं भी गुजारा भत्ता पाने की हकदार हैं।
तब सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मचा था हंगामा
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के कारण मुस्लिम पति द्वारा अपनी तलाकशुदा पत्नी को विशेष रूप से ‘इद्दत’ अवधि (3 महीने) से परे, भरण-पोषण की राशि देने के वास्तविक दायित्व को लेकर विवाद पैदा हो गया था। इस फैसले से पूरे देश में हंगामा मच गया था। राजीव गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन केंद्र सरकार ने संसद में फैसले का बचाव करने के लिए तत्कालीन केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान को मैदान में उतारा था। हालांकि, यह रणनीति उल्टी पड़ गई क्योंकि मुस्लिम धर्मगुरुओं और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने फैसले का कड़ा विरोध किया।
राजीव सरकार लाई थी "मुस्लिम महिला अधिनियम"
राजीव गांधी सरकार ने SC के फैसले के बाद अपने रुख में बदलाव करते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करने के लिए एक और मंत्री जेड. ए. अंसारी को मैदान में उतारा। इससे खान नाराज हो गए और उन्होंने सरकार छोड़ दी। खान इस समय केरल के राज्यपाल हैं।
राजीव गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन केंद्र सरकार स्थिति को ‘स्पष्ट’ करने के प्रयास के तहत मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम-1986 लाई, जिसमें तलाक के समय ऐसी महिला के अधिकारों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 1986 के अधिनियम की संवैधानिक वैधता को 2001 में डेनियल लतीफी मामले में बरकरार रखा था।
शाह बानो ने खटखटाया था सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा
शाह बानो केस में ऐतिहासिक फैसले में ‘पर्सनल लॉ’ की व्याख्या की गई तथा लैंगिक समानता के मुद्दे के समाधान के लिए समान नागरिक संहिता की जरूरत का भी जिक्र किया गया। इसने विवाह और तलाक के मामलों में मुस्लिम महिलाओं के लिए समान अधिकारों की नींव रखी। बानो ने शुरूआत में, अपने तलाकशुदा पति से भरण-पोषण राशि पाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया था। बानो के पति ने उन्हें ‘तलाक’ दे दिया था। जिला अदालत में शुरू हुई यह कानूनी लड़ाई 1985 में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान पीठ के ऐतिहासिक फैसले के साथ समाप्त हुई।
शाह बानो ने खटखटाया था सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा
शाह बानो केस में ऐतिहासिक फैसले में ‘पर्सनल लॉ’ की व्याख्या की गई तथा लैंगिक समानता के मुद्दे के समाधान के लिए समान नागरिक संहिता की जरूरत का भी जिक्र किया गया। इसने विवाह और तलाक के मामलों में मुस्लिम महिलाओं के लिए समान अधिकारों की नींव रखी। बानो ने शुरूआत में, अपने तलाकशुदा पति से भरण-पोषण राशि पाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया था। बानो के पति ने उन्हें ‘तलाक’ दे दिया था। जिला अदालत में शुरू हुई यह कानूनी लड़ाई 1985 में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान पीठ के ऐतिहासिक फैसले के साथ समाप्त हुई।
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भरण-पोषण मांगने का स्वतंत्र विकल्प सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस बी. वी. नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने दिए अपने फैसले में कहा- शाह बानो मामले के फैसले में मुस्लिम शौहर द्वारा अपनी तलाकशुदा बीबी, जो तलाक दिए जाने या तलाक मांगने के बाद अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, के प्रति भरण-पोषण के दायित्व के मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की गई है।
कोर्ट ने कहा- ‘बेंच ने (शाह बानो मामले में) सर्वसम्मति से यह माना था कि ऐसे पति का दायित्व उक्त संबंध में किसी भी ‘पर्सनल लॉ’ के अस्तित्व से प्रभावित नहीं होगा और CrPC 1973 की धारा 125 के तहत भरण-पोषण मांगने का स्वतंत्र विकल्प हमेशा उपलब्ध है।’
दूसरी शादी करने वाले शौहर को न
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, शाह बानो केस में दिये गए फैसले में यह भी कहा गया है, कि यह मानते हुए भी कि तलाकशुदा पत्नी द्वारा मांगी जा रही भरण-पोषण राशि के संबंध में धर्मनिरपेक्ष और ‘पर्सनल लॉ’ के प्रावधानों के बीच कोई टकराव है, तो भी CrPC की धारा 125 का प्रभाव सर्वोपरि होगा। बेंच ने कहा कि 1985 के फैसले में स्पष्ट किया गया है कि पत्नी को दूसरी शादी करने वाले अपने पति के साथ रहने से इनकार करने का अधिकार है। (भाषा)
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पुराने कानूनों को भी नया तेवर दिया जा सकता है
मुस्लिम महिलाओं के गुजारा भत्ते से जुड़ा सर्वोच्च न्यायालय का (10 जुलाई 2024) अहम निर्णय न केवल इस जटिल मुद्दे पर प्रगतिशीलता की रोशनी डालता है, बल्कि समाज में बराबरी की हैसियत के लिए जूझतीं महिलाओं को ताकत देता है। शीर्ष अदालत ने इस निर्णय के माध्यम से बताया है- सही ढंग से व्याख्या करके पुराने कानूनों को भी नया तेवर दिया जा सकता है।
गुजारा भत्ता
मामला मूलत: मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता देने के सवाल से जुड़ा था जो देश में मजहब, कानून और राजनीति से जुड़ा एक जटिल मसला रहा है। अस्सी के दशक में चर्चित हुआ शाहबानो मामला आज भी इन तीनों हलकों की चर्चा में उठता रहता है। उस मामले में सुप्रीम कोर्ट के प्रगतिशील कदम को संसद से नया कानून बनवाकर पलटने की कोशिश तत्कालीन सरकार ने की थी। लेकिन उस समय से अब तक न सिर्फ राजनीति बल्कि समाज का स्वरूप भी काफी बदल चुका है।
बदला माहौल
अब न तो राजनीति उस तरह के आग्रहों से संचालित होती दिखती है और न समाज। खासकर समाज की महिलाएं उन्हें बर्दाश्त करने की स्थिति में हैं, जिनके दबाव में राजीव गांधी सरकार ने शाहबानो केस के फैसले को पलटने का निर्णय किया था। इसकी तसदीक इस बात से भी होती है कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले को भी जहां राजनीति की एक धारा राजीव सरकार के उस फैसले से जोड़कर देख रही है, वहीं दूसरी धारा इससे असहज महसूस कर रही है।
महिलाओं को ताकत
SC का निर्णय स्पष्ट रूप से यह महिला सशक्तीकरण की दिशा में उठाया एक बड़ा कदम है। कोर्ट ने निर्णय से महिलाओं को अहसास कराया- चाहे शादी में रहते हुए खुद को सशक्त महसूस करने की बात हो या परिवार के दायरे से निकलने के बाद अपना हक सुनिश्चित करने की, देश के कानून की शक्ति उनके साथ है। कोर्ट ने इस निर्णय के माध्यम न्याय व्यवस्था को यह संदेश भी दिया है- कानून को लागू करते हुए और इसकी व्याख्या करते हुए स्त्री-पुरुष समानता और कमजोर तबकों के हितों की सुरक्षा जैसे मूल्यों को ध्यान में रखने की जरूरत है।
अगर आपने अब तक सदस्यता नहीं लिया है, तो सदस्यता राशि भेजकर लें। आपकी सदस्यता राशि के बराबर आपका फ्री विज्ञापन / शुभकामना आदि प्रकाशित होगा, क्योंकि प्रकाश अव्यावसायिक है, "बिना-लाभ हानि" के आधार पर जनवरी 2012 से प्रकाशित हो रहा है। सनातन धर्म एवं राष्ट्रवाद के समर्थन में सदस्यता हेतु सभी हिन्दुओं से आग्रह है -प्रसार प्रबंधक धर्म नगरी/DN News
गुजारा भत्ता
मामला मूलत: मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता देने के सवाल से जुड़ा था जो देश में मजहब, कानून और राजनीति से जुड़ा एक जटिल मसला रहा है। अस्सी के दशक में चर्चित हुआ शाहबानो मामला आज भी इन तीनों हलकों की चर्चा में उठता रहता है। उस मामले में सुप्रीम कोर्ट के प्रगतिशील कदम को संसद से नया कानून बनवाकर पलटने की कोशिश तत्कालीन सरकार ने की थी। लेकिन उस समय से अब तक न सिर्फ राजनीति बल्कि समाज का स्वरूप भी काफी बदल चुका है।
बदला माहौल
अब न तो राजनीति उस तरह के आग्रहों से संचालित होती दिखती है और न समाज। खासकर समाज की महिलाएं उन्हें बर्दाश्त करने की स्थिति में हैं, जिनके दबाव में राजीव गांधी सरकार ने शाहबानो केस के फैसले को पलटने का निर्णय किया था। इसकी तसदीक इस बात से भी होती है कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले को भी जहां राजनीति की एक धारा राजीव सरकार के उस फैसले से जोड़कर देख रही है, वहीं दूसरी धारा इससे असहज महसूस कर रही है।
महिलाओं को ताकत
SC का निर्णय स्पष्ट रूप से यह महिला सशक्तीकरण की दिशा में उठाया एक बड़ा कदम है। कोर्ट ने निर्णय से महिलाओं को अहसास कराया- चाहे शादी में रहते हुए खुद को सशक्त महसूस करने की बात हो या परिवार के दायरे से निकलने के बाद अपना हक सुनिश्चित करने की, देश के कानून की शक्ति उनके साथ है। कोर्ट ने इस निर्णय के माध्यम न्याय व्यवस्था को यह संदेश भी दिया है- कानून को लागू करते हुए और इसकी व्याख्या करते हुए स्त्री-पुरुष समानता और कमजोर तबकों के हितों की सुरक्षा जैसे मूल्यों को ध्यान में रखने की जरूरत है।
इस मुस्लिम महिला की दर्द भरी दास्तां सुनिए
पति से तलाक के बाद ससुर की बेगम बनी
पति ने दूसरी बार तलाक दिया तो देवर की बेगम बनी
अब सुप्रीम कोर्ट फैसले के बाद इस समाज के पुरुष गंदगी फैलाने से पहले सोचेंगे #ViralVideo
पति से तलाक के बाद ससुर की बेगम बनी
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यह तो नमूना है इनके सिस्टम में तो अलग ही लेवल है अभी हम कुछ कहेंगे तो कोई और वीडियो डालेगा मैं ट्विटर पर ही एक वीडियो देखा है यह अफ़गानियों की बीवीयां हैं और आप बताइए क्या यह बच्चियों किसी की बीवी बनने लायक है इन लोगों के सिस्टम में सरिया कानून बहुत ही घटिया कानून है। जब अफगानिस्तान में तालिबानियों ने कब्जा कर लिया था तब 12 साल की बच्चियों के लिए शादी को अनिवार्य बना दिया गया था यहां तक कि वह अपने आतंकियों से शादी करवाने के लिए इन बच्चों को दिन दहाड़े घर से उठाकर ले जा रहे थे -@singh_kikki
इनके शरीयत कानून में कोई ऐसी पाबंदी नहीं है अगर आप किसी पर हमला करते हैं तो आप उसकी बीवी को या फिर उसकी बच्ची को जबरदस्ती शादी कर सकते हैं उसके साथ जो चाहे कर सकते हैं यह उनके कुरान में लिखा गया है जो हमारे कानून में गलत है वह उनके नियम है उन्हें करना है
इस्लाम के हिसाब से औरत खेती है..
और एक मुस्लिम पुरुष एक समय में 4 खेती रख सकता है...
4 खेती = 4 गुना अब्दुल (जनसंख्या G हाद)
बहुसंख्यक नागरिक बनना है फिर इस्लामिक राष्ट्र घोषित करना है। कश्मीर, पश्चिम बंगाल के साथ यही हो रहा है
धीरे धीरे करके देश के सभी राज्य में होने लगेगा.. -@ajay_kumar2511
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