#गणेशोत्सव : छत्रपति शिवाजी महाराज के समय पुनः आरंभ हुआ "गणेश चतुर्थी उत्सव"


गणेशोत्सव के माध्यम से लोकमान्य तिलक ने दिया- 
स्वदेशी, स्वराज, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा का नारा दिया
- गणेश चतुर्थी पहली बार चालुक्य, सातवाहन व राष्ट्रकूट राजवंशों ने 271 ईसा पूर्व और 1190 ईस्वी के बीच मनाया !
- देश की सबसे लंबी विसर्जन शोभा यात्रा "लालबागचा राजा"

स्वतंत्रता पूर्व गणपति शोभा यात्रा (ऊपर) एवं लालबाग के राजा (नीचे) की विसर्जन शोभा यात्रा, मुंबई का दृश्य (फाइल फोटो) 
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-राजेश पाठक 

छत्रपति शिवाजी महाराज समय गणेश चतुर्थी उत्सव पुनः प्रारंभ हुआ, जबकि इतिहासकारों के अनुसार,  भगवान गणेश का जन्मदिन- गणेश चतुर्थी पहली बार चालुक्य, सातवाहन और राष्ट्रकूट राजवंशों ने 271 ईसा पूर्व और 1190 ईस्वी के बीच शासन काल में मनाया गया। गणेश चतुर्थी उत्सव का पहला ऐतिहासिक रिकॉर्ड छत्रपति शिवाजी महाराज के युग का है। भगवान गणेश को उनके कुलदेवता या पारिवारिक देवता माना जाता था। मराठा साम्राज्य के संस्थापक शिवाजी महाराज ने 16वीं सदी के पहले दशक में गणेश चतुर्थी पुणे में बहुत धूमधाम से मनाया। इसके बाद, पेशवाओं द्वारा पर्व मनाया जाता रहा।

सबसे लंबी विसर्जन शोभा यात्रा "लालबागचा राजा"

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में अंग्रेजों से लड़ने के लिए सार्वजनिक गणेश चतुर्थी समारोह आरम्भ किया। सन 1894 में कांग्रेस (उदारवादी नेताओं) के भारी विरोध की परवाह किए बिना, दृढ़निश्चय कर चुके लोकमान्य तिलक ने इस गौरवशाली परंपरा की नींव रख दिया। गणेश चतुर्थी के बाद दस दिनों तक लगातार गणेश उत्सव की धूम देखने को मिलती है। गणेश चतुर्थी लोक आस्था से तो जुड़ा हुआ पर्व ही हुआ है, लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में भी इसका विशेष महत्व रहा है।

भगवान गणेश भारत भर में पूजे जाने वाले एक लोकप्रिय देवता हैं और गणेश चतुर्थी एक घरेलू मामला रहा। वर्ष 1893 में, स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक ने इस उत्सव को एक निजी उत्सव से एक भव्य सार्वजनिक कार्यक्रम में परिवर्तित किया, ताकि भारत को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट किया जा सके। सामूहिक समारोहों पर अंकुश लगाने के लिए, ब्रिटिशों ने भारतीयों को बड़े समूहों में मिलने से मना किया जब तक कि उनके धार्मिक उद्देश्यों के लिए। इसलिए गणेश चतुर्थी के लिए, तिलक ने मुंबई में मंडपों पर भगवान गणेश के विशाल होर्डिंग्स लगाए। उन्होंने विशाल गणपति की मूर्तियों और सार्वजनिक समारोहों को भी प्रोत्साहित किया। भगवान गणेश, बाधाओं को हटाने से न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में देवत्व आया, बल्कि लोगों में देशभक्ति की भावना भी जागृत हुई।

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Ganapati Aarati, Bhajan, Songs 
https://www.youtube.com/watch?v=6ho2hg34zBM&t=1274s

बाल कृष्ण बरगद के पत्ते पर लेटे हुए पैर का अंगूठा क्यों चूसते हैं ?
http://www.dharmnagari.com/2024/09/Krishn-apne-pair-ka-angootha-kyo-chusate-hai-Why-does-Krishna-suck-his-toe-while-lying-on-a-banyan-leaf.html

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दुनिया के अनेक देशों में गणपति पूजा, महोत्सव
गणेशजी की पूजा एवं गणपति महोत्सव थाईलैंड, कंबोडिया, चीन, जापान, नेपाल सहित अब दक्षिण यूरोप व दक्षिण अफ्रीका के अनेक देशों सहित विकसित देशों- अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, जापान, आस्ट्रेलिया आदि देशों में की जाती है। भगवान गणेश की दिव्यता सिर्फ भारत भर में नहीं फैली है। वास्तव में उनका आशीर्वाद भारत की सीमाओं के पार थाइलैंड, कंबोडिया, जापान और यहां तक कि अफगानिस्तान जैसे देशों की यात्रा करता है। लेकिन उनका चित्रण भारतीय अवतार से एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न है। उसके हाथ में आसन और हथियार काफी अलग हैं।

चीन एक देवता की पूजा करता है जिसे ‘कांगी टेन’ कहा जाता है। वे दो हाथी के सिर वाले आंकड़े हैं जो एक-दूसरे को गले लगाते हैं। भगवान गणेश इंडोनेशिया के रु में भी दिखते हैं। 20,000 का करेंसी नोट। कंबोडिया एक ईश्वर की पूजा करता है जिसे ‘प्राह केन’ कहा जाता है। खमेर-पूर्व काल के कंबोडियन गणेश की प्रतिमाएँ कान, बिना गर्दन, बिना सिर की पोशाक और बिना बर्तन के पेट जैसे चौड़े पंखे के साथ भगवान को दर्शाती हैं।

मछुआरों द्वारा स्थापित "लालबागचा राजा"
लालबागचा राजा मंडल भारत के सबसे पुराने मंडलों में से एक है, जिसकी स्थापना 1944 में पेरू चॉल इलाके में हुई थी। 1932 में चॉल को बंद कर दिया गया था। और स्थानीय लोग जो मछुआरे थे और विक्रेताओं ने गणपति को पाने और जगह में स्थापित करने का वादा किया था। सबसे पहले लालबागचा राजा मछुआरों द्वारा स्थापित किया गया था।

मुंबई में कांबली परिवार 1935 से गणपति की मूर्तियों का डिजाइन और निर्माण करता है। लालबागचा राजा भारत में सबसे लंबे विसर्जन या विसर्जन जुलूस की मेजबानी करता है। यह सुबह 10 बजे शुरू होता है और अगली सुबह समाप्त होता है। दूसरा सबसे लंबा विसर्जन जुलूस अंधेरिचा राजा में होता है। ये हैं गणेश चतुर्थी के बारे में कुछ रोचक तथ्य, जिनके बारे में आपने सम्भवतः न सुना हो। आप भी प्यार, व्यापार, नौकरी, उत्साह और आशा के साथ गणेशोत्सव का आनंद लें। गणपति बप्पा मोरया !

गणेशोत्सव के माध्यम से तिलक ने दिया स्वराज का नारा
ब्रिटिश सरकार को भारत से भगाने के लिए लोकमान्य तिलक ने स्वदेशी, स्वराज, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा का नारा दिया। सार्वजनिक गणेशोत्सव के माध्यम से स्वाधीनता के लिए राष्ट्र जागरण और लोकसंग्रह कर लोगों का नाता राष्ट्र से जोड़ा। इस कार्य के लिए उन्होंने 1893 में सार्वजनिक गणेशोत्सव का आयोजन का प्रारंभ किया। लोकमान्य तिलक के प्रखर एवं क्रांतिकारी विचारों से प्रेरित होकर अनेक कार्यकर्ताओं ने सार्वजनिक गणेशोत्सव शुरू किया और स्वतंत्रता के लिए जनजागरण किया। उत्सव में आयोजित किये जाने वाले व्याख्यानों से सर्वसामान्य लोगों को ज्ञान मिलने लगा। उत्सव में गाए जाने वाले गीतों से सामाजिक-धार्मिक बातें सुनाने का अवसर मिला। स्फूर्ति देने वाले ऐसे अनेक उपक्रमों का लोगों ने शस्त्रों जैसा उपयोग किया। लोकमान्य तिलक के विचार और भारत के स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल के कार्य-

श्रीमंत भाऊसाहेब रंगारी ने पुणे में 1892 में सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल की स्थापना कर स्वतंत्रता आंदोलन को दिशा देने का प्रयास किया। श्रीमंत भाऊसाहेब रंगारी ट्रस्ट द्वारा अन्याय के विरोध में प्रतिकार करने की ऊर्जा देने वाले, स्वाधीनता संग्राम से लेकर गोवा मुक्ति संग्राम तक क्रांतिकारियों को प्रेरणा देने वाले अनेक उपक्रम चलाए गए। सार्वजनिक गणेशोत्सव के माध्यम से शस्त्रों का आदान प्रदान, शस्त्रों का एकत्रीकरण, क्रांतिकारियों सुरक्षित मार्ग उपलब्ध करवाना आदि श्रीमंत भाऊसाहेब रंगारी का वाडे से संचालित होता था। अनेक क्रांतिकारी योजनाओं को मूरत रूप मिला, इसलिए इस स्थान को क्रांतिकारियों का मायका भी कहा जाता है। 

1893 में लोकमान्य तिलक के करकमलों से श्रीमंत दगडूशेठ हलवाई गणपती की स्थापना हुआ। स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने हेतु अनेक पहलवानों को संगठित किया गया. क्रांतिकारियों का सहयोग किया। लोकमान्य तिलक की धरोहर नाम से प्रसिद्ध केसरीवाडा में १८९४ में सार्वजनिक गणेशोत्सव की स्थापना हुई. गणेशोत्सव द्वारा जन प्रबोधन करना तिलकजी का मुख्य उद्देश्य था. इसी के कारण इस गणेशोत्सव में हमेशा प्रबोधनात्मक भाषणों पर जोर दिया गया. तिलक जी स्वयं यहां पर भाषण किया करते थे। केसरीवाडा गणेशोत्सव का वैशिष्ट्य था, प्रबोधनात्मक कार्यक्रम एवं भाषणों पर जोर दिया गया।  .

पुणे के ग्रामदेवता अर्थात कसबा पेठ गणपति. स्वाधीनता पूर्व कालखंड में लोगों में देशभक्ति की भावना जागृत करने के उद्देश्य से मेलों / सभाओं का आयोजन किया जाता था। 1904 में हुए एक संस्कृत श्लोक पाठान्तर कार्यक्रम में स्वातंत्र्यवीर सावरकर उपस्थित थे। इस मंडल ने हिंदवी स्वराज्य की स्थापना, स्वाधीनता का महत्व, विषयों की जानकारी कथा, मेले, सभाओं द्वारा जनसामान्य तक पहुंचाई। 

तुलसी बाग गणपति 1901 में स्थापित गणेशोत्सव मंडल के कार्यकर्ता पुणे के क्रांतिकारियों की गुप्त सभाओं में सहभागी होते थे। परिसर के कार्यकर्ता इकट्ठे होकर स्वाधीनता प्राप्ति की चर्चा किया करते थे और समाज प्रबोधन के लिए उस चर्चा का उपयोग करते थे। 
पुणे के कसबा पेठ गणपति पंडाल में 1904 में हुए संस्कृत श्लोक पाठ के कार्यक्रम में अमर स्वातंत्र्यवीर वीर सावरकर उपस्थित थे। इस पंडाल से हिंदवी स्वराज स्थापना जैसे विषयों पर कई जन प्रबोधन हुए जिनसे समूचे राष्ट्र में जागृति आई।

"तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा" का नारा देने वाले नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने अपनी पुणे यात्रा के दौरान शनिवार वाडा पर जनसमुदाय से आर्थिक सहयोग का आग्रह रखा था। तब गंगूबाई नामदेवराव मते ने एक क्षण में अपने सोने के कंगन और कानों की बालियां उतारकर नेताजी के हाथों में रख दी थी। फिर तो राशि, आभूषण, संपत्ति आदि दान देने वालो का तांता लग गया था वहां। पुणे व्यापारी मंडल के सदस्यों ने भी न केवल नगद राशि और सोना दिया अपितु स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भाग भी लिया।

देश भर के गणेश पंडाल पुणे के गणेशोत्सव से प्रेरणा लेकर अपनी झांकियां व शोभा यात्राएं आदि निकालने लगे। 1945 में पुणे की एक झांकी में नेताजी सुभाषचंद्र बोस को स्वाधीनता के सूर्योदय के रथ के सारथी के रूप में बताया गया। रथ में श्रीगणेश विराजमान थे। यह झांकी इतनी प्रसिद्ध हुई कि इसे देखने देश भर से लोग आने लगे। जनता के आग्रह पर और दर्शानार्थियों का तांता देखकर इस झांकी को 10 दिन के स्थान 45 दिन बाद विसर्जित किया गया था। देखें-
गणेशोत्सव में देश भर के स्वातंत्र्य यौद्धा, विचारक चिंतक द्वारा जा जाकर भाषण देने व जनजागरण करने का कार्य अद्भुत रूप से गति पकड़ चुका था। इन गणेश पंडालों में एक ओर रात्रि में ब्रिटिश शासन विरोधी, अस्पृश्यता विरोधी, जातिवादी विरोधी भाषण होते थे तो दिनभर भी बड़ी सक्रियता बनी रहती थी। दिन में यहां दंड (लाठी), मलखंभ, कुश्ती, तलवारबाजी, निशानेबाजी के प्रदर्शन व प्रशिक्षण होते थे।

गणेशोत्सव के इस बढ़ते स्वरूप से अंग्रेज घबराने लगे। रोलेट कमेटी ने इस पर चिंता व्यक्त की। रिपोर्ट में कहा गया था गणेशोत्सव के दौरान युवकों और बच्चों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेज विरोधी गीत गाती हैं और पर्चे वितरित करती हैं। इन पर्चों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह करने का संदेश होता था। स्वाधीनता आंदोलन को धर्म के माध्यम से एक नई शक्ति, संगठन व ऊर्जा देने की प्रेरणा दी जाती थी। 
इस प्रकार गणेशोत्सव को प्रमुखतः लोकमान्य बालगंगाधर तिलक व वीर सावरकर द्वारा एक अभियान के रूप में स्थापित किया गया। स्वाधीनता आंदोलन को गति देने व समूचे राष्ट्र को जागृत करने के गुण के कारण यह उत्सव सर्वधर्म प्रिय राष्ट्रीय उत्सव बन गया था। स्वराज के ध्येय को इन गणेश पंडालों के माध्यम से ही राष्ट्रीय ध्येय बना दिया गया और अद्भुत समाज जागरण का कार्य हुआ।

गणेशोत्सव की चर्चा बाल गंगाधर तिलक के बिना प्रारंभ नहीं होती व वीर सावरकर व कवि गोविंद की चर्चा के बिना समाप्त नहीं हो सकती। वीर सावरकर जी ने तिलक जी के ध्येय को आगे बढ़ाते हुये “मित्रमेला” नाम की एक संस्था बनाई थी जिसका प्रमुख कार्य था पोवाड़े गाना। पोवाड़े एक प्रकार के मराठी लोकगीत होते हैं। इस संस्था के पोवाड़े गायन ने समूचे महाराष्ट्र विशेषतः पश्चिमी महाराष्ट्र मे बड़ा ही उल्लेखनीय समाजजागरण किया व चहुं ओर अंग्रेजों के विरुद्ध हल्ला बोल जैसी स्थिति का निर्माण कर दिया था। मित्रमेला के मंच पर कवि गोविंद के पोवाड़े सुनने हेतु कई कई नगर उमड़ घुमड़ जाते थे। इस प्रकार वीर सावरकर और लोकमान्य तिलक द्वारा प्रज्ज्वलित गणेश उत्सव की यह ज्योति बाद में ज्वाला बन गई थी। वर्तमान में इस गणेशोत्सव के लगभग 50 हजार पंडाल केवल महाराष्ट्र मे ही लगते हैं व संपूर्ण भारत मे लगभग तीन लाख पंडाल गणेश लगते हैं। इस उत्सव से लगभग दो करोड़ मानव दिवस के रोजगार की उत्पत्ति होती है व अरबों रुपयों का कारोबार इस दस दिवसीय उत्सव से होता है।

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स्वाधीनता के पूर्व के कालखंड में पुणे में एक बड़ा आन्दोलन हुआ, जिसमें पुणे के अखिल मंडई मंडल के अनेक व्यापारियों ने इस आन्दोलन में सहभाग लिया। ऐसे एक आन्दोलन के लिए पुणे से जाने वाली एक ट्रेन में बैठे कार्यकर्ता और सदस्य मुंबई से भूखे हैं, ऐसा पता चला तब अखिल मंडई मंडल द्वारा सभी व्यापारी बंधु, महिला वर्ग और हमाल ने बहुत कम समय में हजारों लोगों के खाने का प्रबंध किया. अपनी-अपनी दुकानों में चूल्हे जलाकर, अपने मजदूर और घरवालों को साथ लेकर भोजन की व्यवस्था की गई। 1928 में स्थापित गणेश गल्ली, लालबाग सार्वजनिक उत्सव मंडल ने गणेशोत्सव में अलग-अलग झांकिया बनायीं. झांकियों का उद्देश्य और स्वरूप ऐसा रहता था, जिससे स्वाधीनता संग्राम के प्रति समाज जागरूक हो। सन 1945 की संस्मरणीय झांकी में दिखाया गया था- नेताजी सुभाषचंद्र बोस स्वाधीनता के सूर्योदय का रथ चला रहे हैं और रथ में श्रीगणेश विराजमान हैं. इस झांकी को इतनी प्रसिद्धि मिली कि 10 दिनों के बदले 45 दिनों बाद गणेश विसर्जन किया गया। 

लालबागचा राजा सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल द्वारा 1934 से 1947 तक विविध राष्ट्रीय विचारधारा के नेताओं के भाषण आयोजित किये गए। देशभक्ति की भावनाओं को बढ़ा देने वाली झाकियां, सजावट तैयार की जाती थी। स्वाधीनता ही ध्येय मानकर चिंचपोकली चिंतामणि सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल ने जनजागृति के लिए अखंड भारत, श्रीराम की महती, वैकुंठगमन जैसी झांकियां तैयार की थीं। 

1920 में स्थापित ठाणे के श्री गणेशोत्सव लोकमान्य आली मंडल ने 1931 में मंत्रजागर आयोजित न करते हुए अस्पृश्यों के मेले का आयोजन किया था। 1925 में इसी तरह के एक मेले में ठाणे के कार्यकर्ताओं ने दादर में आकर एक मेले में सहभाग लिया था और उत्तम सादरीकरण का स्वर्ण पदक भी प्राप्त किया था। कल्याण में 1895 में स्थापित त्वष्टा कसार गणेशोत्सव मंडल में कुश्ती में पारंगत अनेक कार्यकर्ता थे। मंडल के कार्यकर्ताओं द्वारा मैदान में नागरिकों को कुश्ती, लाठीकाठी, मलखंभ सिखाकर स्वसंरक्षण की सीख दी जाती थी। लोकमान्य तिलक के प्रखर और क्रांतिकारी विचारों से प्रेरित खामगाव, बुलडाना के तानाजी गणेशोत्सव मंडल के कार्यकर्ताओं ने स्वाधीनता संग्राम सहित गोवा मुक्ति आन्दोलन में भी जेल में समय बिताया।  

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