बाल कृष्ण बरगद के पत्ते पर लेटे हुए पैर का अंगूठा क्यों चूसते हैं ?

पैर का अंगूठा पीने की लीला का भाव

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बाल कृष्ण द्वारा अपने पैर के अंगूठे चूसने की बहुत प्रसिद्ध छवि का उल्लेख विभिन्न स्थानों पर किया गया है। बालमुकुन्दाष्टकम् के प्रथम परिच्छेद में इस दृश्य का स्पष्ट चित्रण किया गया है-
करारविंदे न पदारविंदं
मुखार विंदे विनवे शयंतं
वातस्य पत्रस्य पुते शयनं
बलं मुकुंदं मनसा स्मरामि।
अर्थात, "मैं बालमुकुंद की प्रार्थना करता हूं, जो अपने कमल जैसे पैर, अपने कमल जैसे मुंह के पास, अपने कमल जैसे हाथ का उपयोग करते हुए रखते हैं।"

श्रीमद भागवत के 9वें अध्याय में ऋषि मार्कण्डेय ने भगवान कृष्ण को बरगद के पत्ते पर सोते हुए देखने का वर्णन है-
उन्होंने देखा, कि कैसे शिशु ने अपने दोनों हाथों की सुन्दर उंगलियों से उनके एक चरण कमल को पकड़कर अपने मुंह में रख लिया। यद्यपि, दोनों ही यह बताने में विफल रहे कि वह ऐसी स्थिति में क्यों है। क्या कोई विशेष कारण है कि वह अपने पैरों को अपने मुँह के पास क्यों रखता है? (क्या यह केवल यह दर्शाने के लिए है कि वह एक बच्चा है, या इसका कोई और छिपा हुआ अर्थ है?)


श्रीकृष्णावतार की यह बाललीला देखने, सुनने अथवा पढ़ने में तो छोटी-सी तथा सामान्य लगती है, किन्तु इसे कोई हृदयंगम कर ले और कृष्ण के रूप में मन लग जाय, तो उसका तो बेड़ा पार होकर ही रहेगा, क्योंकि-
नन्हे श्याम की नन्ही लीला, 
भाव बड़ा  गम्भीर रसीला।

श्रीकृष्ण सच्चिदानन्द परब्रह्म परमात्मा हैं। यह सारा संसार उन्हीं की आनन्दमयी लीलाओं का विलास है। श्रीकृष्ण की लीलाओं में हमें उनके ऐश्वर्य के साथ-साथ माधुर्य के भी दर्शन होते हैं। ब्रज की लीलाओं में तो श्रीकृष्ण संसार के साथ बिलकुल बँधे-बँधे से दिखायी पड़ते हैं। उन्हीं लीलाओं में से एक लीला है बालकृष्ण द्वारा अपने पैर का अंगूठे पीने की लीला।

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पैर का अंगूठा पीने की लीला का भाव
श्रीकृष्ण की पैर का अंगूठा पीने की लीला का भाव है। भगवान श्रीकृष्ण के प्रत्येक कार्य को संतों ने लीला माना है जो उन्होंने किसी उद्देश्य से किया। जानते हैं संतों की दृष्टि में क्या है श्रीकृष्ण के पैर का अंगूठा पीने की लीला का भाव ?

संतों का मानना है, बालकृष्ण अपने पैर के अंगूठे को पीने के पहले यह सोचते हैं, कि क्यों ब्रह्मा, शिव, देव, ऋषि, मुनि आदि इन चरणों की वंदना करते रहते हैं और इन चरणों का ध्यान करने मात्र से उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ? कैसे इन चरण-कमलों के स्पर्श मात्र से गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या पत्थर की शिला से सुन्दर स्त्री बन गई ?

कैसे इन चरण-कमलों से निकली गंगा का जल (गंगाजी विष्णुजी के पैर के अँगूठे से निकली हैं अत: उन्हें विष्णुपदी भी कहते हैं) दिन-रात लोगों के पापों को धोता रहता है ? क्यों ये चरण-कमल सदैव प्रेम-रस में डूबी गोपांगनाओं के वक्ष:स्थल में बसे रहते हैं ? क्यों ये चरण-कमल शिवजी के धन हैं। मेरे ये चरण-कमल भूदेवी और श्रीदेवी के हृदय-मंदिर में सदैव क्यों विराजित हैं ?

जे पद-पदुम सदा शिव के धन, सिंधु-सुता  उर  ते नहिं  टारे।
जे पद-पदुम परसि जलपावन,सुरसरि-दरस कटत अघ भारे।।
जे पद-पदुम परसि रिषि-पत्नी, बलि-मृग-ब्याध पतित बहु तारे।
जे पद-पदुम तात-रिस-आछत, मन-बच-क्रम प्रहलाद सँभारि।।

भक्तगण मुझसे कहते हैं-
हे कृष्ण ! तुम्हारे चरणारविन्द प्रणतजनों की कामना पूरी करने वाले हैं, लक्ष्मीजी के द्वारा सदा सेवित हैं, पृथ्वी के आभूषण हैं, विपत्तिकाल में ध्यान करने से कल्याण करने वाले हैं।
भक्तों और संतों के हृदय में बसकर मेरे चरण-कमल सदैव उनको सुख प्रदान क्यों करते हैं ? बड़े-बड़े ऋषि मुनि अमृतरस को छोड़कर मेरे चरणकमलों के रस का ही पान क्यों करते हैं। क्या यह अमृतरस से भी अधिक स्वादिष्ट है ?

विहाय  पीयूष  रसं  मुनीश्वरा,
ममांघ्रिराजीवरसं पिबन्ति किम्।
इति स्वपादाम्बुजपान कौतुकी,
स गोपबाल: श्रियमातनोतु व:।।

अपने चरणों की इसी बात की परीक्षा करने के लिये बालकृष्ण अपने पैर के अंगूठे को पीने की लीला किया करते थे, यह दिखाने के लिए कि भक्तों को उनके चरण कितने मधुर लगते हैं। अतः वह हमें संकेत दे रहा है कि हम उसके चरणों को पकड़ें और उनकी पूजा करें।
शिशुओं में अपने पैर की उँगलियाँ चूसने की प्रवृत्ति होती है। यह नई चीज़ों के बारे में अधिक जानने की प्रवृत्ति है। अगर हम ध्यान दें, तो शिशु हर नई वस्तु को अपने पास रखने का प्रयास करते हैं, जिससे उस वस्तु के बारे में अधिक जान सकें। परन्तु भगवान कृष्ण अन्य शिशुओं से अलग हैं, भले ही यह शिशुओं द्वारा की जाने वाली एक सामान्य क्रिया की तरह दिखता है। भगवान कृष्ण को अपने पैर का अंगूठा चूसते हुए दर्शाने में एक प्रतीकात्मकता होगी।

बालमुकुन्दाष्टकम् में भगवान कृष्ण के बचपन और उनके द्वारा की गई लीलाओं के विभिन्न चरणों को दर्शाया गया है। पहले श्लोक में भगवान के चरणों और शिशु रूप में भगवान के मुख की सुंदरता का वर्णन किया गया है। तीसरे और चौथे श्लोक में भगवान कृष्ण के शरीर और मुख की सुंदरता का वर्णन किया गया है। इसके बाद माखन चुराना, कालिया मर्दन (कालिया नाग के फन पर नृत्य करना) और नलकूबर और मणिग्रीव को मुक्त करने की लीला का उल्लेख किया गया है। अतः बालमुकुन्दाष्टकम् में भगवान के पैर का अंगूठा चूसने का उल्लेख उनके कमल के चरणों और उनके कमल जैसे मुख की सुंदरता का वर्णन करने का एक साधन है।

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बालमुकुंदष्टकम्
कर्तव्यविन्देन पदारविन्दं
मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्।
वत्स्य पत्रस्य पुते शयानं
बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ॥1॥
कराराविंदेन पदारविंदं
मुखारविंदे विनिवेशयंतम्।
वतस्य पत्रस्य पुते शयनं
बलं मुकुंदं मनसा स्मरामि ॥1॥
जो अपने कमल जैसे हाथ से अपने कमल जैसे मुख पर अपने कमल जैसे चरण रखते हैं, मैं उन बालमुकुंदन का स्मरण करता हूँ जो वात पत्र के पत्ते पर सोते हैं। (1)

बाला मुकुंद वटपात्रा सायी
संहृत्य लोकान् वटपत्रमध्ये
शयानमाद्यन्तविकसनरूपम्।
सर्वेश्वरं सर्वहितावतारं
बालं मुकुंदं मनसा स्मरामि॥2॥ 
संहृत्य लोकान् वतपत्रमध्ये 
शयानमाद्यन्तविहिनारूपम्। 
सर्वेश्वरं सर्वहितावतरं बलं 
मुकुंदं मनसा स्मरामि ॥2॥
जो लोकों के प्रलय के पश्चात वात-पथ पर शयन करते हैं, जिनका स्वरूप आदि-अन्त से रहित है, जो सबके स्वामी हैं, उन बालमुकुन्दन का मैं स्मरण करता हूँ, जो सबके कल्याण के लिए अवतरित हुए हैं। 
गोपाल गाय के साथ
इन्दिवर्ष्यामलकोमलाङ्गं
इन्द्रादिदेवार्चितपादपद्म।
संतानकल्पद्रुमाश्रितानां
बालं मुकुंदं मनसा स्मरामि॥3॥
इंदीवरश्यामलाकोमलंगं
इंद्रादिदेवार्चितपादपद्मम्।
संतानकल्पद्रुममाश्रितानां
बलं मुकुंदं मनसा स्मरामि॥3॥
जिनका शरीर नीले कमल के समान सुन्दर और श्याम रंग का है, जिनके चरणकमलों की पूजा इन्द्र आदि देवता करते हैं, मैं उन बालमुकुन्दन का स्मरण करता हूँ, जो कल्पक वृक्ष के समान हैं और जो अपने को प्रणाम करने वालों को संतान-भाग्य प्रदान करते हैं। 

बालमुकुंदन
मधालकं लम्बितहारयष्टिं
श्रीङ्गारलीलाङकितदन्तपङ्क्तिम्।
बिम्बाधरं चारुविशालनेत्रं
बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ॥4॥
लाम्बालकं लम्बितहारयष्टिम्
शृंगारालिलांकितदंतपंक्तिम्।
बिम्बाधरं चारुविशालेत्रं
बलं मुकुंदं मनसा स्मरामि॥4॥
जिनके मुख के सामने बालों की लटें लटक रही हैं, जो लम्बी लटकती हुई माला पहनते हैं, जिनके दाँतों की पंक्तियाँ श्रृंगाररस के रस से चमक रही हैं, जिनके होठ लाल बिम्ब फल (कोवई) के समान हैं , मैं उन बालमुकुंदन का स्मरण करता हूँ जिनके लम्बे और सुन्दर नेत्र हैं।

बालमुकुंदन  
शिक्ये निधायाद्यपयोद्धिनि
बहिरगतयां व्रजनायिकायम्।
भुक्त्वा यथेष्टं कप्तेन सुप्तं
बालं मुकुंदं मनसा स्मरामि॥5॥
शिक्ये निधायाद्य पयोदाधिनि
बहिरगतायम् व्रजानायकायम्।
भुक्त्वा यथेष्टं कपातेन सुप्तं
बलं मुकुंदं मनसा स्मरामि॥5॥

जिस समय यशोदा दूध, दही बर्तन में रखकर बाहर चली जाती हैं, उस समय जो यह सब खाकर झूठमूठ सो जाता है, उस बालमुकुन्दन का मुझे स्मरण आता है।  

कालिया कृष्ण
कलिन्दजन्तस्थितकालियस्य
फनाग्र्रान्गे नतनप्रियन्तम्।
तत्पुच्छहस्तं शरदिंदुवक्त्रं
बालं मुकुंदं मनसा स्मरामि ॥6॥
कलिन्दजन्तस्थितकालियस्य
फणाग्ररंगगे नतनप्रियन्तम्।
तत्पुच्छहस्तं शरदिंदुवक्त्रं
बलं मुकुंदं मनसा स्मरामि॥6॥
कालिंदी की शिला से, जो कालिया नाग के फन पर नृत्य करने की इच्छा रखते हैं, जो कालिया की पूंछ का अग्रभाग अपने हाथ में रखते हैं, जिनका मुख सारत्रितु (दिसम्बर मास) के चन्द्रमा के समान चमकता है, उन बालमुकुन्दन का मैं स्मरण करता हूँ। 

नलकुवर-मणिग्रीव
उलुखले बद्धमुदारशौर्यं
उत्तुङ्ग युग्मजार्जुन भङ्गलीलम्।
उत्फुल्ल पद्मयत् चारुनेत्रं
बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि॥7॥
उलुखले बद्धमुदारशौर्यम्
उत्तुंगयुगमार्जुन भंगालीलम्।
उत्फुल्लपद्मयता चारुनेत्रं
बलं मुकुंदं मनसा स्मरामि॥7॥
जो गोल शिला से बँधे हुए हैं, जो महान हैं, जिनमें दो मरुथमरम (अर्जुन-वृक्षों) को भूमि पर धकेल देने की क्रीड़ा है, जिनके नेत्र खिले हुए लाल कमल के समान हैं, मैं उन बालमुकुन्दन का स्मरण करता हूँ। 

बालमुकुंदन दूध चूसते हुए
आलोक्य मातुर्मुखमादरेण
स्तन्यं पिबन्तं सरसीरुहक्षम्।
सच्चिन्मयं देवमनन्तरूपं
बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि॥8॥
अलोक्य मातुर्मुखमदारेण
स्तन्यं पिबन्तं सरसीरुहाक्षम्।
सच्चिन्मयं देवमनन्तरूपं
बलं मुकुंदं मनसा स्मरामि॥8॥

जो माता के स्तनों से दूध पीते समय उसके मुख को प्रेमपूर्वक देखते हैं, जिनके नेत्र लाल कमल के समान हैं, जो सत्य, बुद्धि तथा अन्य रूपों से युक्त तथा भगवान हैं, उन बालमुकुन्दन का मैं स्मरण करता हूँ।  
|| इति श्री बालमुकुंदष्टकम् संपूर्णम् ‌||
इस प्रकार श्री बालमुकुंदष्टकम् नामक 8 श्लोक वाला भजन समाप्त होता है।

कथा...
राधा जी ने श्रीकृष्ण को क्यों पिलाया अपने पैरों का चरणामृत ?
बचपन से एक दूसरे के साथ रहने वाले राधा और श्रीकृष्ण जी के प्रेम को द्वापर से लेकर आज भी स्मरण किया जाता है। हर किसी के द्वारा श्रीकृष्ण के संग राधा की पूजा की जाती है। एक-दूसरे से निःसंदेह इनका विवाह न हो सका, मगर इनका प्रेम आज भी अमर है। राधा और श्रीकृष्ण के इसी अमर प्रेम से कई सारी ऐसी कहानियां भी जुड़ी हैं, जो परस्पर दोनों के बीच "कितना अधिक प्रेम था", इसको दर्शाती हैं। इन्हीं कहानियों में से एक कहानी चरणामृत से जुड़ी हुई है-

चरणामृत से जुड़ी इस कथा के अनुसार,  एकबार श्रीकृष्ण अधिक बीमार पड़ गए। सभी प्रकार के उपचार (इलाज) के पश्चात भी वो ठीक नहीं हो रहे थे। श्रीकृष्ण को अस्वस्थ होता देख हर कोई दु:खी था। दूर-दूर से लोग इनका उपचार करने के लिए आ रहे थे, इन्हें कई तरह की जड़ी-बूटियां दे रहे थे।  परन्तु कोई भी जड़ी-बूटी इनको ठीक नहीं कर पा रही थी और श्रीकृष्ण का स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था।  
इस बीच श्रीकृष्ण से मिलने अनेक गोपियां उनके पास आई। सभी गोपियों को कृष्ण स्थिति देखकर बहुत दुःख होने लगा। श्रीकृष्ण ने इन सभी गोपियों को देखकर कहा- मेरे पर कोई भी जड़ी-बूटी प्रभाव नहीं कर रही है। यद्यपि, आप में से कई एक गोपी अपने पैरों को धोकर उस पानी को मुझे पिला दें, तो मैं पूर्ण स्वस्थ हो जाऊँगा। वास्तव में,  कृष्णजी का मानना था, कि जो गोपी उनसे सबसे अधिक प्रेम करती हैं, अगर उसका चरणामृत वो पी लें तो वो ठीक हो जाएंगे। 

श्रीकृष्ण की ये बात सुनने के बाद किसी भी गोपी में साहस नहीं हुआ अपने चरणामृत देने का। वास्तव में, सभी गोपियों को लगने लगा, अगर वो श्रीकृष्ण को चरणामृत पीने को देती हैं, तो उन्हें पाप लग जाएगा और उनको नर्क में जगह मिलेगी। नर्क जाने के डर से किसी भी गोपी ने श्रीकृष्ण की बात मानने से मना कर दिया। 
कुछ देर बाद जब राधा वहां आई, तो राधा को गोपियों ने कृष्ण जी द्वारा दिए गए सुझाव को बताया। जैसे ही राधा को पता चला, कि कृष्ण जी को चरणामृत देने से वो ठीक हो जाएंगे, तो उन्होंने तुरंत पानी से पहले अपने पैरों को साफ किया और फिर वो पानी श्रीकृष्ण को पीने को दे दिया। चरणामृत पीते ही कृष्ण जी ठीक हो गए और उन्होंने राधा का आभार व्यक्त किया। 

इस कथा से स्पष्ट है, कि राधाजी  कृष्ण जी से इतना प्रेम करती थी, कि वो नर्क में जाने से भी नहीं डरी। दूसरी ओर, सभी गोपियां नर्क जाने के डर से ऐसा नहीं कर पाई। राधा जी ने बिना कोई प्रश्न किए श्रीकृष्ण ने जैसा कहा, वैसे कर दिया और उन्हें ठीक करने के लिए चरणामृत उन्हें पिला दिया।

श्रीकृष्ण अपने मुकुट के ऊपर मोरपंख क्यों रखते थे ?
कथा है, जब श्रीहरि विष्णु ने त्रेता युग में राम के रुप मे अवतार लिया और सीता और लक्ष्मण 14 वर्ष के लिए वन-वन भटक रहे थे, सीता को रावण हर कर ले गया। मानव रूप में लीला करते हुए राम और लक्ष्मण सीता को खोजते हुए भटक रहे थे और प्राणियो से सीता का पता पूछ रहे थे- क्या उन्होंने सीता को कही देखा है ? तब एक मोर ने कहा कि प्रभु मैं आपको रास्ता बात सकता हूँ, कि रावण सीता माता को किस और ले गया है,पर मैं आकाश मार्ग से जाऊंगा और आप पैदल तो रास्ता भटक सकते है इसलिए मैं अपना एक-एक पंख गिराता हुआ जाऊँगा जिससे आप रास्ता ना भटके,और इस तरह मोर ने श्रीराम को रास्ता बताया परंतु अंत मे वह मरणासन्न हो गया, क्योंकि मोर के पंख एक विशिष्ट मौसम में अपने आप ही गिरते है ,अगर इस तरह जानबूझ के पंख गिरे तो उसकी मृत्यु हो जाती है, श्रीराम ने उस मोर को कहा कि वे इस जन्म में उसके इस उपकार का मूल्य तो नही चुका सकते, परंतु अपने अगले जन्म में उसके सम्मान में पंख को अपने मुकुट में धारण करेंगें और इस तरह श्रीकृष्ण के रूप में विष्णु ने जन्म लिया और अपने मुकुट में मोर पंख को धारण किया।

एक अन्य अद्भुत कथा है-
गोकुल में एक मोर रहता था। वह श्रीकृष्ण का अनन्‍य भक्त था। एक बार उसने श्रीकृष्ण की कृपा पाने के लिए कन्‍हैया के द्वार पर जाकर जप करने का व‍िचार क‍िया। इसके बाद वह उनके द्वार पर बैठकर कृष्‍ण-कृष्‍ण जपता रहा। जप करते हुए उसे एक बरस बीत गया, लेक‍िन उसे श्रीकृष्‍ण की कृपा प्राप्‍त नहीं हुई। एक द‍िन दु:खी होकर मोर रोने लगा। तभी वहां से एक मैना उड़ती जा रही थी। उसने मोर को रोता हुए देखा तो बहुत अचंभित हुई। 

मैना ने सोचा, यूं तो मोर क‍िसी भी कारण से रो सकता है लेक‍िन कन्‍हैया के दर पर कोई रोए, यह तो अचंभित करने वाली बात है। फिर मैना मोर के पास गई और रोने का कारण पूछा। तब मोर ने बताया क‍ि एक बरस से मैं कन्‍हैया को प्रसन्‍न करने कृष्‍ण नाम जप कर रहा हूं, लेक‍िन कन्‍हैया ने आज तक मुझे पानी भी नहीं प‍िलाया। यह सुनकर मैना बोली- मैं श्रीराधे रानी के बरसना से आई हूं। तू मेरे साथ वहीं चल, राधे रानी बहुत दयालु हैं। वह तुझपर अवश्य कृपा करेंगी।

मोर ने मैना की बात मान ली और दोनों ही उड़ते-उड़ते बरसाना पहुंच गए। परन्तु मोर ने राधा रानी के दर पर भी श्रीकृष्‍ण नाम का ही जप क‍िया। यह सुनते ही श्री राधे दौड़ती हुई आईं और मोर को गले से लगा ल‍िया।

राधा रानी ने मोर से पूछा- तू कहां से आया है। तब मोर ने कहा- जय हो राधा रानी की। आज तक सुना था कि तुम करुणामयी हो और आज देख भी लिया। राधा रानी बोली- वह कैसे ? तब मोर बोला-  मैं पिछले एक बरस कन्हैया के द्वार पर कृष्ण नाम जप कर रहा हूं, लेकिन पानी पिलाना तो दूर, उन्होंने तो मेरी ओर देखा तक नहीं। तब राधा जी ने कहा- नहीं, मेरे कान्हा ऐसे निर्मोही नहीं हैं।

किशोरी जी ने कहा- तुम कन्हैया के द्वार 
फिर से पर जाओ। लेकिन इस बार कृष्ण नहीं, राधे-राधे रटना। मोर ने राधा रानी की बात मान ली और लौट कर गोकुल वापस आ गया। कृष्ण के द्वार पर पहुंचा और इस बार राधे-राधे रटने लगा। यह सुनते ही श्री कृष्ण दौड़े चले आए और मोर से पूछा तुम कहां से आए हो ? तब मोर ने कहा- हे माधव, एक बरस से तुम्हारा नाम संकीर्तन कर रहा था, तब तो तुमने मुझे पानी तक नहीं पिलाया, आज राधे-राधे जपने पर दौड़े चले आए ?

मोर की बात सुनकर कृष्णजी बोले- मैंने तुझको कभी पानी नहीं पिलाया, यह मैंने पाप किया है। लेकिन तूने राधा का नाम लिया, यह तेरा सौभाग्य है। इसलिए मैं तुझको वरदान देता हूं, कि जब तक यह सृष्टि रहेगी, तेरा पंख सदैव ही मेरे शीश पर विराजमान होगा। साथ ही जो भी भक्त किशोरी जी का नाम लेगा वह भी मेरे शीश पर रहेगा। और तब से श्रीकृष्ण मोर पंख को अपने शीश पर धारण करने लगे।

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