श्रीहनुमान जन्मोत्सव : कलयुग के प्रत्यक्ष देव, जो एक करोड़ 85 लाख 58 हजार 114 वर्ष से...
...पृथ्वी पर हैं, सदैव रहेंगे
माता अंजनी के पूर्व जन्म की कथा
कहते हैं कि माता अंजनी पूर्व जन्म में देवराज इंद्र के दरबार में अप्सरा पुंजिकस्थला थीं। बालपन में वो अत्यंत सुंदर और स्वभाव से चंचल थीं। एक बार अपनी चंचलता में ही उन्होंने तपस्या करते एक तेजस्वी ऋषि के साथ अभद्रता कर दी थी। गुस्से में आकर ऋषि ने पुंजिकस्थला को श्राप दे दिया- जा तू वानर की तरह स्वभाव वाली वानरी बन जा। ऋषि के श्राप को सुनकर पुंजिकस्थला ऋषि से क्षमा याचना मांगने लगी, तब ऋषि ने कहा, कि तुम्हारा वह रूप भी परम तेजस्वी होगा। तुमसे एक ऐसे पुत्र का जन्म होगा, जिसकी कीर्ति और यश से तुम्हारा नाम युगों-युगों तक अमर हो जाएगा, अंजनी को वीर पुत्र का आशीर्वाद मिला।
हनुमानजी की बाल्यावस्था
ऋषि के श्राप से त्रेता युग में अंजना मे नारी वानर के रूप में धरती पे जन्म लेना पड़ा इंद्र जिनके हाथ में पृथ्वी के सृजन की कमान है, स्वर्ग में स्थित इंद्र के दरबार (महल) में हजारों अप्सरा (सेविकाएं) थीं, जिनमें से एक अंजना (अप्सरा पुंजिकस्थला) की सेवा से प्रसन्न होकर इंद्र ने उन्हें मनचाहा वरदान मांगने को कहा। अंजना ने हिचकिचाते हुए उनसे कहा, कि उन पर एक तपस्वी साधु का श्राप है, अगर हो सके तो उन्हें उससे मुक्ति दिलवा दें। इंद्र ने उनसे कहा, कि वह उस श्राप के बारे में बताएं, क्या पता वह उस श्राप से उन्हें मुक्ति दिला दें।
अंजना ने उन्हें अपनी कहानी सुनानी शुरू की, अंजना ने कहा ‘बालपन में जब मैं खेल रही थी तो मैंने एक वानर को तपस्या करते देखा। मेरे लिए यह एक बड़ी आश्चर्य वाली घटना थी, इसलिए मैंने उस तपस्वी वानर पर फल फेंकने शुरू कर दिए। बस यही मेरी गलती थी, क्योंकि वह कोई आम वानर नहीं बल्कि एक तपस्वी साधु थे। मैंने उनकी तपस्या भंग कर दी और क्रोधित होकर उन्होंने मुझे श्राप दिया, कि जब भी मुझे किसी से प्रेम होगा, तो मैं वानर बन जाऊंगी। मेरे बहुत गिड़गिड़ाने और माफी मांगने पर उस साधु ने कहा, कि मेरा चेहरा वानर होने के बावजूद उस व्यक्ति का प्रेम मेरी तरफ कम नहीं होगा। अपनी कहानी सुनाने के बाद अंजना ने कहा, अगर इंद्र देव उन्हें इस श्राप से मुक्ति दिलवा सकें, तो वह उनकी बहुत आभारी होंगी। इंद्र देव ने उन्हें कहा कि इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए अंजना को धरती पर जाकर वास करना होगा, जहां वह अपने पति से मिलेंगी। शिव के अवतार को जन्म देने के बाद अंजना को इस श्राप से मुक्ति मिल जाएगी।
इंद्र की बात मानकर अंजना धरती पर आईं और केसरी से विवाह - इंद्र की बात मानकर अंजना धरती पर चली आईं, एक शाप के कारण उन्हें नारी वानर के रूप में धरती पे जन्म लेना पड़ा। उस शाप का प्रभाव शिव के अंश को जन्म देने के बाद ही समाप्त होना था। वह एक शिकारन के रूप में जीवन यापन करने लगीं। जंगल में उन्होंने एक बड़े बलशाली युवक को शेर से लड़ते देखा और उसके प्रति आकर्षित होने लगीं। जैसे ही उस व्यक्ति की दृष्टि अंजना पर पड़ीं, अंजना का चेहरा वानर जैसा हो गया। अंजना जोर-जोर से रोने लगीं, जब वह युवक उनके पास आया और उनकी पीड़ा का कारण पूछा तो अंजना ने अपना चेहरा छिपाते हुए उसे बताया, कि वह कुरूप हो गई हैं। अंजना ने उस बलशाली युवक को दूर से देखा था, लेकिन जब उसने उस व्यक्ति को अपने समीप देखा, तो पाया कि उसका चेहरा भी वानर जैसा था।
अपना परिचय बताते हुए उस व्यक्ति ने कहा, कि वह कोई और नहीं वानर राज केसरी हैं जो जब चाहें इंसानी रूप में आ सकते हैं। अंजना का वानर जैसा चेहरा उन दोनों को प्रेम करने से नहीं रोक सका और जंगल में केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया। केसरी एक शक्तिशाली वानर थे, जिन्होने एक बार एक भयंकर हाथी को मारा था, जिसने कई बार असहाय साधु-संतों को विभिन्न प्रकार से कष्ट पहुँचाया था। तभी से उनका नाम केसरी पड़ गया, "केसरी" का अर्थ होता है सिंह। उन्हे "कुंजर सुदान"(हाथी को मारने वाला) के नाम से भी जाना जाता है।
पंपा सरोवर
अंजना और मतंग ऋषि - पुराणों में कथा है कि केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया पर संतान सुख से वंचित थे। अंजना अपनी इस पीड़ा को लेकर मतंग ऋषि के पास गई। तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-पप्पा (कई लोग इसे पंपा सरोवर भी कहते हैं) सरोवर के पूर्व में नरसिंह आश्रम है। उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है। वहाँ जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करने पर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी।
पवन देव का वरदान
मतंग रामायण कालीन एक ऋषि थे, जो शबरी के गुरु थे। अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया था बारह वर्ष तक केवल वायु पर ही जीवित रही, एक बार अंजना ने “शुचिस्नान” करके सुंदर वस्त्र आभूषण धारण किए। तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से प्रसन्न होकर उस समय पवन देव ने उसके कर्णरन्ध्र में प्रवेश कर उसे वरदान दिया, कि तेरे यहां सूर्य, अग्नि एवं सुवर्ण के समान तेजस्वी, वेद-वेदांगों का मर्मज्ञ, विश्वन्द्य महाबली पुत्र होगा।
भगवान शिव का वरदान
अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ के पास, अपने आराध्य शिव की तपस्या में मग्न थीं । शिव की आराधना कर रही थीं तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें वरदान मांगने को कहा, अंजना ने शिव को कहा कि साधु के श्राप से मुक्ति पाने के लिए उन्हें शिव के अवतार को जन्म देना है, इसलिए शिव बालक के रूप में उनकी कोख से जन्म लें। (कर्नाटक राज्य के दो जिले कोप्पल और बेल्लारी में रामायण काल का प्रसिद्ध किष्किंधा है)
‘तथास्तु’ कहकर शिव अंतर्ध्यान हो गए। इस घटना के बाद एक दिन अंजना शिव की आराधना कर रही थीं। दूसरी तरफ अयोध्या में, इक्ष्वाकु वंशी महाराज अज के पुत्र और अयोध्या के महाराज दशरथ, अपनी तीन रानियों के कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी साथ पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए, श्रृंगी ऋषि को बुलाकर 'पुत्र कामेष्टि यज्ञ' के साथ यज्ञ कर रहे थे। यज्ञ की पूर्णाहुति पर स्वयं अग्नि देव ने प्रकट होकर श्रृंगी को खीर का एक स्वर्ण पात्र (कटोरी) दिया और कहा "ऋषिवर! यह खीर राजा की तीनों रानियों को खिला दो। राजा की इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।" जिसे तीनों रानियों को खिलाना। परन्तु इस दौरान एक चमत्कारिक घटना हुई, एक पक्षी उस खीर की कटोरी में थोड़ा सा खीर अपने पंजों में फंसाकर ले गया और तपस्या में लीन अंजना के हाथ में गिरा दिया। अंजना ने शिव का प्रसाद समझकर उसे ग्रहण कर लिया।
हनुमानजी, लंका और माता पार्वती
हनुमान जी का जन्म त्रेता युग में अंजना के पुत्र के रूप में, चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा की महानिशा में हुआ।
लंका दहन के संबंध में सामान्यत: यही माना जाता है, कि सीता की खोज करते हुए लंका पहुंचे और रावण के पुत्र सहित अनेक राक्षसों का अंत कर दिया। तब रावण के पुत्र मेघनाद ने हनुमानजी को ब्रह्मास्त्र छोड़कर काबू किया और रावण ने हनुमानजी की पूंछ में आग लगाने का दंड दिया। फिर उसी जलती पूंछ से हनुमानजी ने लंका में आग लगा रावण का दंभ चूर किया। किंतु पुराणों में लंका दहन के पीछे भी एक और रोचक कथा जुड़ी है, जिसके कारण श्री हनुमान ने पूंछ से लंका में आग लगाई।
रामभक्त हनुमान शिव के अवतार है। शिव से ही जुड़ा है यह रोचक प्रसंग। एक बार माता पार्वती की इच्छा पर शिव ने कुबेर से सोने का सुंदर महल का निर्माण करवाया। किंतु रावण इस महल की सुंदरता पर मोहित हो गया। वह ब्राह्मण का वेश रखकर शिव के पास गया। उसने महल में प्रवेश के लिए शिव-पार्वती से पूजा कराकर दक्षिणा के रूप में वह महल ही मांग लिया। भक्त को पहचान शिव ने प्रसन्न होकर वह महल दान दे दिया।
दान में महल प्राप्त करने के बाद रावण के मन में विचार आया, कि यह महल असल में माता पार्वती के कहने पर बनाया गया। इसलिए उनकी सहमति के बिना यह शुभ नहीं होगा। तब उसने शिवजी से माता पार्वती को भी मांग लिया और महादेव शिव ने इसे भी स्वीकार कर लिया। जब रावण उस सोने के महल सहित मां पार्वती को ले जाना लगा। तब अचंभित और दु:खी माता पार्वती ने विष्णु को स्मरण किया और उन्होंने आकर माता की रक्षा की।
जब माता पार्वती अप्रसन्न हो गई, तब शिव ने अपनी गलती को मानते हुए मां पार्वती को वचन दिया- त्रेतायुग में मैं वानर रूप हनुमान का अवतार लूंगा। उस समय तुम मेरी पूंछ बन जाना। जब मैं माता सीता की खोज में इसी सोने के महल यानी लंका जाऊंगा, तो तुम पूंछ के रूप में लंका को आग लगाकर रावण को दंडित करना।
प्राकट्य की प्रसिद्ध कथा
अंजना के पुत्र होने के कारण ही हनुमान जी को आंजनेय नाम से भी जाना जाता है। जिसका अर्थ होता है 'अंजना द्वारा उत्पन्न'। माता अंजनी और कपिराज केसरी हनुमानजी को अतिशय प्रेम करते थे। हनुमानजी को सुलाकर वो फल-फूल लेने गए। इसी समय बाल हनुमान भूख एवं अपनी माता की अनुपस्थिति में भूख के कारण आक्रन्द करने लगे। तब उनकी दृष्टि क्षितिज पर पड़ी। सूर्योदय हो रहा था। बाल हनुमान को लगा की यह कोई लाल फल है। (तेज और पराक्रम के लिए कोई अवस्था नहीं होती है)।
यहां पर तो हनुमान जी के रूप में माता अंजनी के गर्भ से प्रत्यक्ष महादेव शिव अपने ग्यारहवें रुद्र में लीला कर रहे थे और पवन देव ने उनके उड़ने की शक्ति भी प्रदान की। जब शिशु हनुमान को भूख लगी, तो वे उगते हुए सूर्य को फल समझकर उसे पकड़ने आकाश में उड़ने लगे। उस लाल फल को लेने हनुमान जी वायुवेग से आकाश में उड़ने लगे। उनको देखकर देव, दानव सभी विस्मयपूर्वक कहने लगे, कि बाल्यावस्था में ऐसे पराक्रम दिखाने वाला यौवनकाल में क्या नहीं करेगा ! उधर भगवान सूर्य ने उन्हें अबोध शिशु समझकर अपने तेज से नहीं जलने दिया।
जिस समय हनुमान सूर्य को पकड़ने के लिये लपके, उसी समय राहु सूर्य पर ग्रहण लगाना चाहता था। हनुमानजी ने सूर्य के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पर्श किया तो, वह भयभीत होकर वहाँ से भाग गया। उसने इन्द्र के पास जाकर शिकायत की। "देवराज ! आपने मुझे अपनी क्षुधा शान्त करने के साधन के रूप में सूर्य और चन्द्र दिये थे। आज अमावस्या के दिन जब मैं सूर्य को ग्रस्त करने गया, तब देखा कि दूसरा राहु सूर्य को पकड़ने जा रहा है।"
राहु की बात सुनकर इन्द्र घबरा गये और उसे साथ लेकर सूर्य की ओर चल पड़े। राहु को देखकर हनुमान जी सूर्य को छोड़ राहु पर झपटे। राहु ने इन्द्र को रक्षा के लिये पुकारा, तो उन्होंने हनुमान जी पर वज्रायुध से प्रहार किया जिससे वे एक पर्वत पर गिरे और उनकी बायीं ठुड्डी टूट गई। हनुमान की यह दशा देखकर वायु देव को क्रोध आया। उन्होंने उसी क्षण अपनी गति रोक दिया। इससे संसार की कोई भी प्राणी साँस न ले सकें और सब पीड़ा से तड़पने लगे। तब सारे सुर-असुर, यक्ष, किन्नर आदि ब्रह्माजी की शरण में गये।
ब्रह्मा उन सबको लेकर वायु देव के पास गये। वे मूर्छित हनुमान को गोद में लिये उदास बैठे थे। जब ब्रह्मा जी ने उन्हें सचेत किया तो वायु देव ने अपनी गति का संचार करके सभी प्राणियों की पीड़ा दूर की। तभी श्री ब्रह्मा जी ने हनुमान जी को वरदान दिया कि इस बालक को कभी ब्रह्म शाप नहीं लगेगा, कभी भी उनका एक भी अंग शस्त्र से प्रभावित नहीं होगा। ब्रह्माजी ने अन्य देवताओं से भी कहा, इस बालक को आप सभी वरदान दें। तब देवराज इंद्र ने हनुमानजी के गले में कमल की माला पहनाते हुए कहा- मेरे वज्र प्रहार के कारण इस बालक की हनु (दाढ़ी) टूट गई है, इसलिए इन कपिश्रेष्ठ का नाम आज से हनुमान रहेगा और मेरा वज्र भी इस बालक को हानि न पहुंचा सके, ऐसा वज्र से कठोर होगा। सूर्य देव ने भी कहा- इस बालक को में अपना तेज प्रदान करता हूं और मैं इसको शस्त्र-समर्थ मर्मज्ञ बनाता हूँ।
हनुमानजी के कुछ नाम एवं उनका अर्थ
हनुमानजी को मारुति, बजरंगबली इत्यादि नामों से भी जानते हैं। मरुत शब्द से ही मारुति शब्द की उत्पत्ति हुई है। महाभारत में हनुमानजी का उल्लेख मारुतात्मज के नाम से किया गया है। हनुमानजी का अन्य एक नाम है, बजरंगबली। बजरंगबली यह शब्द वज्रांग बली के अपभ्रंश से बना है। जिनमें वज्र के समान कठोर अस्त्र का सामना करने की शक्ति है, वे वज्रांग बली है। जिस प्रकार लक्ष्मण से लखन, कृष्ण से किशन ऐसे सरल नाम लोगों ने अपभ्रंश कर उपयोग में लाए, उसी प्रकार वज्रांग बली का अपभ्रंश बजरंग बली हो गया।
हनुमानजी की विशेषताएं
अनेक संतों ने समाज में हनुमानजी की उपासना को प्रचलित किया है। ऐसे हनुमान जी के संदर्भ में समर्थ रामदास स्वामी कहते हैं, ‘हनुमानजी हमारे देवता हैं ।’ हनुमानजी शक्ति, युक्ति एवं भक्ति का प्रतीक हैं। इसलिए समर्थ रामदास स्वामी ने हनुमानजी की उपासना की प्रथा आरंभ की। महाराष्ट्र में उनके द्वारा स्थापित ग्यारह मारुति प्रसिद्ध हैं। साथ ही संत तुलसीदास ने उत्तर भारत में मारुति के अनेक मंदिर स्थापित किए तथा उनकी उपासना दृढ़ की। दक्षिण भारत में मध्वाचार्य को मारुति का अवतार माना जाता है। इनके साथ ही अन्य कई संतों ने अपनी विविध रचनाओं द्वारा समाज के समक्ष मारुति का आदर्श रखा है।
अतुलित बल
हनुमान जी सर्वशक्तिमान देवता हैं। जन्म लेते ही हनुमान जी ने सूर्य को निगलने के लिए उड़ान भरी। इससे यह स्पष्ट होता है कि, वायुपुत्र अर्थात वायु तत्त्व से उत्पन्न हनुमान जी, सूर्य पर अर्थात तेजतत्त्व पर विजय प्राप्त करने में सक्षम थे। पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश तत्त्वों में तेज तत्त्व की तुलना में वायु तत्त्व अधिक सूक्ष्म है अर्थात अधिक शक्तिमान है। सभी देवताओं में केवल हनुमान जी को ही अनिष्ट शक्तियां कष्ट नहीं दे सकतीं। लंका में लाखों राक्षस थे, तब भी वे हनुमानजी का कुछ नहीं बिगाड पाएं। इससे हम हनुमान जी की शक्ति का अनुमान लगा सकते हैं।
भूतों के स्वामी
हनुमान जी भूतों के स्वामी माने जाते हैं। किसी को भूत बाधा हो, तो उस व्यक्ति को हनुमानजी के मंदिर ले जाते हैं। साथ ही हनुमान जी से संबंधित स्तोत्र जैसे हनुमत्कवचं, भीमरूपी स्तोत्र अथवा हनुमान चालीसा का पाठ करनेके लिए कहते हैं ।
भक्ति
साधना में जिज्ञासु, मुमुक्षु, साधक, शिष्य एवं भक्त ऐसे उन्नति के चरण होते हैं। इसमें भक्त यह अंतिम चरण है। भक्त अर्थात वह जो भगवान से विभक्त नहीं है। हनुमान जी भगवान श्रीराम से पूर्णतया एकरूप हैं। जब भी नवविधा भक्ति में से दास्य भक्ति का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण देना होता है, तब हनुमानजी का उदाहरण दिया जाता है। वे अपने प्रभु राम के लिए प्राण अर्पण करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं । प्रभु श्रीराम की सेवा की तुलना में उन्हें सब कुछ कौड़ी के मोल लगता है। हनुमान सेवक एवं सैनिक का एक सुंदर सम्मिश्रण हैं। स्वयं सर्वशक्तिमान होते हुए भी वे, अपने-आपको श्रीरामजी का दास कहलाते हैं। उनकी भावना थी कि उनकी शक्ति भी श्रीराम की ही शक्ति है। मान अर्थात शक्ति एवं भक्ति का संगम।
मनोविज्ञान में निपुण एवं राजनीति में कुशल
अनेक प्रसंगों में सुग्रीव इत्यादि वानर ही नहीं, वरन राम भी हनुमानजी से परामर्श करते थे। लंका में प्रथम ही भेंट में हनुमानजी ने सीता के मन में अपने प्रति विश्वास निर्माण किया। इन प्रसंगों से हनुमान जी की बुद्धिमानी एवं मनोविज्ञान में निपुणता स्पष्ट होती है। लंका दहन कर हनुमान जी ने रावण को प्रजा में रावण के सामर्थ्य के प्रति अविश्वास उत्पन्न किया। इस बात से उनकी राजनीति-कुशलता स्पष्ट होती है।
जितेंद्रिय
सीता को ढूंढने जब हनुमानजी रावण के अंतःपुर में गए, तो उस समय की उनकी मनः स्थिति थी, उनके उच्च चरित्र का सूचक है। इस संदर्भ में वे स्वयं कहते हैं, ‘सर्व रावण पत्नियों को निःशंक लेटे हुए मैंने देखा; परंतु उन्हें देखने से मेरे मन में विकार उत्पन्न नहीं हुआ।’ (वाल्मीकि रामायण, सुंदरकांड 11.42-43) इंद्रजीत होने के कारण हनुमानजी रावण पुत्र इंद्रजीत को भी पराजित कर सके। तभी से इंद्रियों पर विजय पाने हेतु हनुमानजी की उपासना बताई गई।
भक्तों की इच्छा पूर्ण करने वाले
हनुमानजी को इच्छा पूर्ण करने वाले देवता मानते हैं, इसलिए व्रत रखने वाले अनेक स्त्री-पुरुष हनुमानजी की मूर्ति की श्रद्धापूर्वक निर्धारित परिक्रमा करते हैं। कई लोगों को आश्चर्य होता है कि, जब किसी कन्या का विवाह निश्चित न हो रहा हो, तो उसे ब्रह्मचारी हनुमान जी की उपासना करने के लिए कहा जाता है। वास्तव में अत्युच्च स्तर के देवताओं में ‘ब्रह्मचारी’ या ‘विवाहित’ जैसा कोई भेद नहीं होता। ऐसा अंतर मानव-निर्मित है। मनोविज्ञान के आधार पर कुछ लोगों की यह गलत धारणा होती है कि, सुंदर, बलवान पुरुष से विवाह की कामना से कन्याएं हनुमानजी की उपासना करती हैं। परंतु वास्तविक कारण कुछ इस प्रकार है। लगभग 30 प्रतिशत व्यक्तियों का विवाह भूतबाधा, जादू-टोना इत्यादि अनिष्ट शक्तियों के प्रभाव के कारण नहीं हो पाता। हनुमानजी की उपासना करने से ये कष्ट दूर हो जाते हैं एवं उनका विवाह संभव हो जाता है।
पवन पुत्र हनुमान का प्राकट्य (जन्म)
ज्योतिषीय गणना को माने, तो हनुमान जी का (प्राकट्य) जन्म एक करोड़ 85 लाख 58 हजार 114 वर्ष पहले चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्रा नक्षत्र व मेष लग्न के योग में सुबह 6:03 बजे हुआ था। महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण (मतान्तर से) के अनुसार कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि (छोटी दीपावली) मंगलवार के दिन हनुमान का जन्म हुआ था।
हनुमान जयंती वर्ष में दो बार मनाई जाती है। पहली- हिन्दू पंचांग (Calendar) के अनुसार चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को अर्थात ग्रेगेरियन कैलेंडर के अनुसार मार्च या अप्रैल के मध्य और दूसरी कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (नरक चतुर्दशी) अर्थात सितंबर-अक्टूबर के मध्य। इसके अलावा तमिलनाडु और केरल में हनुमान जयंती मार्गशीर्ष माह की अमावस्या को तथा उड़ीसा में वैशाख महीने के पहले दिन मनाई जाती है। आखिर सही क्या है?
चैत्र पूर्णिमा को मेष लग्न और चित्रा नक्षत्र में प्रातः 6:03 बजे हनुमानजी का जन्म एक गुफा में हुआ था। अर्थात चैत्र माह में उनका जन्म हुआ था। फिर चतुर्दशी क्यों मनाते हैं ? महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण के अनुसार हनुमानजी का जन्म कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मंगलवार के दिन, स्वाति नक्षत्र और मेष लग्न में हुआ था।
हनुमान जी जन्म मतांतर से
श्रीराम भक्त के जन्मोत्सव की एक तिथि को विजय अभिनन्दन महोत्सव के रूप में, जबकि दूसरी तिथि को जन्मदिवस के रूप में मनाई जाता है। पहली तिथि के अनुसार इस दिन हनुमान जी सूर्य को फल समझकर खाने के लिए दौड़े थे, उसी दिन राहु भी सूर्य को अपना ग्रास बनाने के लिए आया हुआ था, लेकिन हनुमानजी को देखकर सूर्यदेव ने उन्हें दूसरा राहु समझ लिया। इस दिन चैत्र माह की पूर्णिमा थी। जबकि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को उनका जन्म हुआ था। एक अन्य मान्यता के अनुसार, माता सीता ने हनुमानजी की भक्ति और समर्पण को देखकर उनको अमरता का वरदान दिया था। यह दिन नरक चतुर्दशी का दिन था। यद्यपि महर्षि वाल्मीकि ने जो लिखा है, उसे सही माना जा सकता है।
ज्योतिषीय गणना को माने, तो हनुमान जी का (प्राकट्य) जन्म एक करोड़ 85 लाख 58 हजार 114 वर्ष पहले चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्रा नक्षत्र व मेष लग्न के योग में सुबह 6:03 बजे हुआ था। महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण (मतान्तर से) के अनुसार कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि (छोटी दीपावली) मंगलवार के दिन हनुमान का जन्म हुआ था।
हनुमान जयंती वर्ष में दो बार मनाई जाती है। पहली- हिन्दू पंचांग (Calendar) के अनुसार चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को अर्थात ग्रेगेरियन कैलेंडर के अनुसार मार्च या अप्रैल के मध्य और दूसरी कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (नरक चतुर्दशी) अर्थात सितंबर-अक्टूबर के मध्य। इसके अलावा तमिलनाडु और केरल में हनुमान जयंती मार्गशीर्ष माह की अमावस्या को तथा उड़ीसा में वैशाख महीने के पहले दिन मनाई जाती है। आखिर सही क्या है?
चैत्र पूर्णिमा को मेष लग्न और चित्रा नक्षत्र में प्रातः 6:03 बजे हनुमानजी का जन्म एक गुफा में हुआ था। अर्थात चैत्र माह में उनका जन्म हुआ था। फिर चतुर्दशी क्यों मनाते हैं ? महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण के अनुसार हनुमानजी का जन्म कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मंगलवार के दिन, स्वाति नक्षत्र और मेष लग्न में हुआ था।
हनुमान जी जन्म मतांतर से
श्रीराम भक्त के जन्मोत्सव की एक तिथि को विजय अभिनन्दन महोत्सव के रूप में, जबकि दूसरी तिथि को जन्मदिवस के रूप में मनाई जाता है। पहली तिथि के अनुसार इस दिन हनुमान जी सूर्य को फल समझकर खाने के लिए दौड़े थे, उसी दिन राहु भी सूर्य को अपना ग्रास बनाने के लिए आया हुआ था, लेकिन हनुमानजी को देखकर सूर्यदेव ने उन्हें दूसरा राहु समझ लिया। इस दिन चैत्र माह की पूर्णिमा थी। जबकि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को उनका जन्म हुआ था। एक अन्य मान्यता के अनुसार, माता सीता ने हनुमानजी की भक्ति और समर्पण को देखकर उनको अमरता का वरदान दिया था। यह दिन नरक चतुर्दशी का दिन था। यद्यपि महर्षि वाल्मीकि ने जो लिखा है, उसे सही माना जा सकता है।
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हनुमानजी की बाल्यावस्था
ऋषि के श्राप से त्रेता युग में अंजना मे नारी वानर के रूप में धरती पे जन्म लेना पड़ा इंद्र जिनके हाथ में पृथ्वी के सृजन की कमान है, स्वर्ग में स्थित इंद्र के दरबार (महल) में हजारों अप्सरा (सेविकाएं) थीं, जिनमें से एक अंजना (अप्सरा पुंजिकस्थला) की सेवा से प्रसन्न होकर इंद्र ने उन्हें मनचाहा वरदान मांगने को कहा। अंजना ने हिचकिचाते हुए उनसे कहा, कि उन पर एक तपस्वी साधु का श्राप है, अगर हो सके तो उन्हें उससे मुक्ति दिलवा दें। इंद्र ने उनसे कहा, कि वह उस श्राप के बारे में बताएं, क्या पता वह उस श्राप से उन्हें मुक्ति दिला दें।
अंजना ने उन्हें अपनी कहानी सुनानी शुरू की, अंजना ने कहा ‘बालपन में जब मैं खेल रही थी तो मैंने एक वानर को तपस्या करते देखा। मेरे लिए यह एक बड़ी आश्चर्य वाली घटना थी, इसलिए मैंने उस तपस्वी वानर पर फल फेंकने शुरू कर दिए। बस यही मेरी गलती थी, क्योंकि वह कोई आम वानर नहीं बल्कि एक तपस्वी साधु थे। मैंने उनकी तपस्या भंग कर दी और क्रोधित होकर उन्होंने मुझे श्राप दिया, कि जब भी मुझे किसी से प्रेम होगा, तो मैं वानर बन जाऊंगी। मेरे बहुत गिड़गिड़ाने और माफी मांगने पर उस साधु ने कहा, कि मेरा चेहरा वानर होने के बावजूद उस व्यक्ति का प्रेम मेरी तरफ कम नहीं होगा। अपनी कहानी सुनाने के बाद अंजना ने कहा, अगर इंद्र देव उन्हें इस श्राप से मुक्ति दिलवा सकें, तो वह उनकी बहुत आभारी होंगी। इंद्र देव ने उन्हें कहा कि इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए अंजना को धरती पर जाकर वास करना होगा, जहां वह अपने पति से मिलेंगी। शिव के अवतार को जन्म देने के बाद अंजना को इस श्राप से मुक्ति मिल जाएगी।
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https://www.dharmnagari.com/2024/04/Hanuman-Prakatotsav-jayanti-Upay-Panchmukhi-Hanuman-ka-rahsya.html
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अपना परिचय बताते हुए उस व्यक्ति ने कहा, कि वह कोई और नहीं वानर राज केसरी हैं जो जब चाहें इंसानी रूप में आ सकते हैं। अंजना का वानर जैसा चेहरा उन दोनों को प्रेम करने से नहीं रोक सका और जंगल में केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया। केसरी एक शक्तिशाली वानर थे, जिन्होने एक बार एक भयंकर हाथी को मारा था, जिसने कई बार असहाय साधु-संतों को विभिन्न प्रकार से कष्ट पहुँचाया था। तभी से उनका नाम केसरी पड़ गया, "केसरी" का अर्थ होता है सिंह। उन्हे "कुंजर सुदान"(हाथी को मारने वाला) के नाम से भी जाना जाता है।
पंपा सरोवर
अंजना और मतंग ऋषि - पुराणों में कथा है कि केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया पर संतान सुख से वंचित थे। अंजना अपनी इस पीड़ा को लेकर मतंग ऋषि के पास गई। तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-पप्पा (कई लोग इसे पंपा सरोवर भी कहते हैं) सरोवर के पूर्व में नरसिंह आश्रम है। उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है। वहाँ जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करने पर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी।
पवन देव का वरदान
मतंग रामायण कालीन एक ऋषि थे, जो शबरी के गुरु थे। अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया था बारह वर्ष तक केवल वायु पर ही जीवित रही, एक बार अंजना ने “शुचिस्नान” करके सुंदर वस्त्र आभूषण धारण किए। तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से प्रसन्न होकर उस समय पवन देव ने उसके कर्णरन्ध्र में प्रवेश कर उसे वरदान दिया, कि तेरे यहां सूर्य, अग्नि एवं सुवर्ण के समान तेजस्वी, वेद-वेदांगों का मर्मज्ञ, विश्वन्द्य महाबली पुत्र होगा।
भगवान शिव का वरदान
अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ के पास, अपने आराध्य शिव की तपस्या में मग्न थीं । शिव की आराधना कर रही थीं तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें वरदान मांगने को कहा, अंजना ने शिव को कहा कि साधु के श्राप से मुक्ति पाने के लिए उन्हें शिव के अवतार को जन्म देना है, इसलिए शिव बालक के रूप में उनकी कोख से जन्म लें। (कर्नाटक राज्य के दो जिले कोप्पल और बेल्लारी में रामायण काल का प्रसिद्ध किष्किंधा है)
‘तथास्तु’ कहकर शिव अंतर्ध्यान हो गए। इस घटना के बाद एक दिन अंजना शिव की आराधना कर रही थीं। दूसरी तरफ अयोध्या में, इक्ष्वाकु वंशी महाराज अज के पुत्र और अयोध्या के महाराज दशरथ, अपनी तीन रानियों के कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी साथ पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए, श्रृंगी ऋषि को बुलाकर 'पुत्र कामेष्टि यज्ञ' के साथ यज्ञ कर रहे थे। यज्ञ की पूर्णाहुति पर स्वयं अग्नि देव ने प्रकट होकर श्रृंगी को खीर का एक स्वर्ण पात्र (कटोरी) दिया और कहा "ऋषिवर! यह खीर राजा की तीनों रानियों को खिला दो। राजा की इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।" जिसे तीनों रानियों को खिलाना। परन्तु इस दौरान एक चमत्कारिक घटना हुई, एक पक्षी उस खीर की कटोरी में थोड़ा सा खीर अपने पंजों में फंसाकर ले गया और तपस्या में लीन अंजना के हाथ में गिरा दिया। अंजना ने शिव का प्रसाद समझकर उसे ग्रहण कर लिया।
हनुमानजी, लंका और माता पार्वती
हनुमान जी का जन्म त्रेता युग में अंजना के पुत्र के रूप में, चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा की महानिशा में हुआ।
लंका दहन के संबंध में सामान्यत: यही माना जाता है, कि सीता की खोज करते हुए लंका पहुंचे और रावण के पुत्र सहित अनेक राक्षसों का अंत कर दिया। तब रावण के पुत्र मेघनाद ने हनुमानजी को ब्रह्मास्त्र छोड़कर काबू किया और रावण ने हनुमानजी की पूंछ में आग लगाने का दंड दिया। फिर उसी जलती पूंछ से हनुमानजी ने लंका में आग लगा रावण का दंभ चूर किया। किंतु पुराणों में लंका दहन के पीछे भी एक और रोचक कथा जुड़ी है, जिसके कारण श्री हनुमान ने पूंछ से लंका में आग लगाई।
रामभक्त हनुमान शिव के अवतार है। शिव से ही जुड़ा है यह रोचक प्रसंग। एक बार माता पार्वती की इच्छा पर शिव ने कुबेर से सोने का सुंदर महल का निर्माण करवाया। किंतु रावण इस महल की सुंदरता पर मोहित हो गया। वह ब्राह्मण का वेश रखकर शिव के पास गया। उसने महल में प्रवेश के लिए शिव-पार्वती से पूजा कराकर दक्षिणा के रूप में वह महल ही मांग लिया। भक्त को पहचान शिव ने प्रसन्न होकर वह महल दान दे दिया।
दान में महल प्राप्त करने के बाद रावण के मन में विचार आया, कि यह महल असल में माता पार्वती के कहने पर बनाया गया। इसलिए उनकी सहमति के बिना यह शुभ नहीं होगा। तब उसने शिवजी से माता पार्वती को भी मांग लिया और महादेव शिव ने इसे भी स्वीकार कर लिया। जब रावण उस सोने के महल सहित मां पार्वती को ले जाना लगा। तब अचंभित और दु:खी माता पार्वती ने विष्णु को स्मरण किया और उन्होंने आकर माता की रक्षा की।
जब माता पार्वती अप्रसन्न हो गई, तब शिव ने अपनी गलती को मानते हुए मां पार्वती को वचन दिया- त्रेतायुग में मैं वानर रूप हनुमान का अवतार लूंगा। उस समय तुम मेरी पूंछ बन जाना। जब मैं माता सीता की खोज में इसी सोने के महल यानी लंका जाऊंगा, तो तुम पूंछ के रूप में लंका को आग लगाकर रावण को दंडित करना।
प्राकट्य की प्रसिद्ध कथा
अंजना के पुत्र होने के कारण ही हनुमान जी को आंजनेय नाम से भी जाना जाता है। जिसका अर्थ होता है 'अंजना द्वारा उत्पन्न'। माता अंजनी और कपिराज केसरी हनुमानजी को अतिशय प्रेम करते थे। हनुमानजी को सुलाकर वो फल-फूल लेने गए। इसी समय बाल हनुमान भूख एवं अपनी माता की अनुपस्थिति में भूख के कारण आक्रन्द करने लगे। तब उनकी दृष्टि क्षितिज पर पड़ी। सूर्योदय हो रहा था। बाल हनुमान को लगा की यह कोई लाल फल है। (तेज और पराक्रम के लिए कोई अवस्था नहीं होती है)।
यहां पर तो हनुमान जी के रूप में माता अंजनी के गर्भ से प्रत्यक्ष महादेव शिव अपने ग्यारहवें रुद्र में लीला कर रहे थे और पवन देव ने उनके उड़ने की शक्ति भी प्रदान की। जब शिशु हनुमान को भूख लगी, तो वे उगते हुए सूर्य को फल समझकर उसे पकड़ने आकाश में उड़ने लगे। उस लाल फल को लेने हनुमान जी वायुवेग से आकाश में उड़ने लगे। उनको देखकर देव, दानव सभी विस्मयपूर्वक कहने लगे, कि बाल्यावस्था में ऐसे पराक्रम दिखाने वाला यौवनकाल में क्या नहीं करेगा ! उधर भगवान सूर्य ने उन्हें अबोध शिशु समझकर अपने तेज से नहीं जलने दिया।
जिस समय हनुमान सूर्य को पकड़ने के लिये लपके, उसी समय राहु सूर्य पर ग्रहण लगाना चाहता था। हनुमानजी ने सूर्य के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पर्श किया तो, वह भयभीत होकर वहाँ से भाग गया। उसने इन्द्र के पास जाकर शिकायत की। "देवराज ! आपने मुझे अपनी क्षुधा शान्त करने के साधन के रूप में सूर्य और चन्द्र दिये थे। आज अमावस्या के दिन जब मैं सूर्य को ग्रस्त करने गया, तब देखा कि दूसरा राहु सूर्य को पकड़ने जा रहा है।"
राहु की बात सुनकर इन्द्र घबरा गये और उसे साथ लेकर सूर्य की ओर चल पड़े। राहु को देखकर हनुमान जी सूर्य को छोड़ राहु पर झपटे। राहु ने इन्द्र को रक्षा के लिये पुकारा, तो उन्होंने हनुमान जी पर वज्रायुध से प्रहार किया जिससे वे एक पर्वत पर गिरे और उनकी बायीं ठुड्डी टूट गई। हनुमान की यह दशा देखकर वायु देव को क्रोध आया। उन्होंने उसी क्षण अपनी गति रोक दिया। इससे संसार की कोई भी प्राणी साँस न ले सकें और सब पीड़ा से तड़पने लगे। तब सारे सुर-असुर, यक्ष, किन्नर आदि ब्रह्माजी की शरण में गये।
ब्रह्मा उन सबको लेकर वायु देव के पास गये। वे मूर्छित हनुमान को गोद में लिये उदास बैठे थे। जब ब्रह्मा जी ने उन्हें सचेत किया तो वायु देव ने अपनी गति का संचार करके सभी प्राणियों की पीड़ा दूर की। तभी श्री ब्रह्मा जी ने हनुमान जी को वरदान दिया कि इस बालक को कभी ब्रह्म शाप नहीं लगेगा, कभी भी उनका एक भी अंग शस्त्र से प्रभावित नहीं होगा। ब्रह्माजी ने अन्य देवताओं से भी कहा, इस बालक को आप सभी वरदान दें। तब देवराज इंद्र ने हनुमानजी के गले में कमल की माला पहनाते हुए कहा- मेरे वज्र प्रहार के कारण इस बालक की हनु (दाढ़ी) टूट गई है, इसलिए इन कपिश्रेष्ठ का नाम आज से हनुमान रहेगा और मेरा वज्र भी इस बालक को हानि न पहुंचा सके, ऐसा वज्र से कठोर होगा। सूर्य देव ने भी कहा- इस बालक को में अपना तेज प्रदान करता हूं और मैं इसको शस्त्र-समर्थ मर्मज्ञ बनाता हूँ।
हनुमानजी के कुछ नाम एवं उनका अर्थ
हनुमानजी को मारुति, बजरंगबली इत्यादि नामों से भी जानते हैं। मरुत शब्द से ही मारुति शब्द की उत्पत्ति हुई है। महाभारत में हनुमानजी का उल्लेख मारुतात्मज के नाम से किया गया है। हनुमानजी का अन्य एक नाम है, बजरंगबली। बजरंगबली यह शब्द वज्रांग बली के अपभ्रंश से बना है। जिनमें वज्र के समान कठोर अस्त्र का सामना करने की शक्ति है, वे वज्रांग बली है। जिस प्रकार लक्ष्मण से लखन, कृष्ण से किशन ऐसे सरल नाम लोगों ने अपभ्रंश कर उपयोग में लाए, उसी प्रकार वज्रांग बली का अपभ्रंश बजरंग बली हो गया।
हनुमानजी की विशेषताएं
अनेक संतों ने समाज में हनुमानजी की उपासना को प्रचलित किया है। ऐसे हनुमान जी के संदर्भ में समर्थ रामदास स्वामी कहते हैं, ‘हनुमानजी हमारे देवता हैं ।’ हनुमानजी शक्ति, युक्ति एवं भक्ति का प्रतीक हैं। इसलिए समर्थ रामदास स्वामी ने हनुमानजी की उपासना की प्रथा आरंभ की। महाराष्ट्र में उनके द्वारा स्थापित ग्यारह मारुति प्रसिद्ध हैं। साथ ही संत तुलसीदास ने उत्तर भारत में मारुति के अनेक मंदिर स्थापित किए तथा उनकी उपासना दृढ़ की। दक्षिण भारत में मध्वाचार्य को मारुति का अवतार माना जाता है। इनके साथ ही अन्य कई संतों ने अपनी विविध रचनाओं द्वारा समाज के समक्ष मारुति का आदर्श रखा है।
अतुलित बल
हनुमान जी सर्वशक्तिमान देवता हैं। जन्म लेते ही हनुमान जी ने सूर्य को निगलने के लिए उड़ान भरी। इससे यह स्पष्ट होता है कि, वायुपुत्र अर्थात वायु तत्त्व से उत्पन्न हनुमान जी, सूर्य पर अर्थात तेजतत्त्व पर विजय प्राप्त करने में सक्षम थे। पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश तत्त्वों में तेज तत्त्व की तुलना में वायु तत्त्व अधिक सूक्ष्म है अर्थात अधिक शक्तिमान है। सभी देवताओं में केवल हनुमान जी को ही अनिष्ट शक्तियां कष्ट नहीं दे सकतीं। लंका में लाखों राक्षस थे, तब भी वे हनुमानजी का कुछ नहीं बिगाड पाएं। इससे हम हनुमान जी की शक्ति का अनुमान लगा सकते हैं।
भूतों के स्वामी
हनुमान जी भूतों के स्वामी माने जाते हैं। किसी को भूत बाधा हो, तो उस व्यक्ति को हनुमानजी के मंदिर ले जाते हैं। साथ ही हनुमान जी से संबंधित स्तोत्र जैसे हनुमत्कवचं, भीमरूपी स्तोत्र अथवा हनुमान चालीसा का पाठ करनेके लिए कहते हैं ।
भक्ति
साधना में जिज्ञासु, मुमुक्षु, साधक, शिष्य एवं भक्त ऐसे उन्नति के चरण होते हैं। इसमें भक्त यह अंतिम चरण है। भक्त अर्थात वह जो भगवान से विभक्त नहीं है। हनुमान जी भगवान श्रीराम से पूर्णतया एकरूप हैं। जब भी नवविधा भक्ति में से दास्य भक्ति का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण देना होता है, तब हनुमानजी का उदाहरण दिया जाता है। वे अपने प्रभु राम के लिए प्राण अर्पण करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं । प्रभु श्रीराम की सेवा की तुलना में उन्हें सब कुछ कौड़ी के मोल लगता है। हनुमान सेवक एवं सैनिक का एक सुंदर सम्मिश्रण हैं। स्वयं सर्वशक्तिमान होते हुए भी वे, अपने-आपको श्रीरामजी का दास कहलाते हैं। उनकी भावना थी कि उनकी शक्ति भी श्रीराम की ही शक्ति है। मान अर्थात शक्ति एवं भक्ति का संगम।
मनोविज्ञान में निपुण एवं राजनीति में कुशल
अनेक प्रसंगों में सुग्रीव इत्यादि वानर ही नहीं, वरन राम भी हनुमानजी से परामर्श करते थे। लंका में प्रथम ही भेंट में हनुमानजी ने सीता के मन में अपने प्रति विश्वास निर्माण किया। इन प्रसंगों से हनुमान जी की बुद्धिमानी एवं मनोविज्ञान में निपुणता स्पष्ट होती है। लंका दहन कर हनुमान जी ने रावण को प्रजा में रावण के सामर्थ्य के प्रति अविश्वास उत्पन्न किया। इस बात से उनकी राजनीति-कुशलता स्पष्ट होती है।
जितेंद्रिय
सीता को ढूंढने जब हनुमानजी रावण के अंतःपुर में गए, तो उस समय की उनकी मनः स्थिति थी, उनके उच्च चरित्र का सूचक है। इस संदर्भ में वे स्वयं कहते हैं, ‘सर्व रावण पत्नियों को निःशंक लेटे हुए मैंने देखा; परंतु उन्हें देखने से मेरे मन में विकार उत्पन्न नहीं हुआ।’ (वाल्मीकि रामायण, सुंदरकांड 11.42-43) इंद्रजीत होने के कारण हनुमानजी रावण पुत्र इंद्रजीत को भी पराजित कर सके। तभी से इंद्रियों पर विजय पाने हेतु हनुमानजी की उपासना बताई गई।
भक्तों की इच्छा पूर्ण करने वाले
हनुमानजी को इच्छा पूर्ण करने वाले देवता मानते हैं, इसलिए व्रत रखने वाले अनेक स्त्री-पुरुष हनुमानजी की मूर्ति की श्रद्धापूर्वक निर्धारित परिक्रमा करते हैं। कई लोगों को आश्चर्य होता है कि, जब किसी कन्या का विवाह निश्चित न हो रहा हो, तो उसे ब्रह्मचारी हनुमान जी की उपासना करने के लिए कहा जाता है। वास्तव में अत्युच्च स्तर के देवताओं में ‘ब्रह्मचारी’ या ‘विवाहित’ जैसा कोई भेद नहीं होता। ऐसा अंतर मानव-निर्मित है। मनोविज्ञान के आधार पर कुछ लोगों की यह गलत धारणा होती है कि, सुंदर, बलवान पुरुष से विवाह की कामना से कन्याएं हनुमानजी की उपासना करती हैं। परंतु वास्तविक कारण कुछ इस प्रकार है। लगभग 30 प्रतिशत व्यक्तियों का विवाह भूतबाधा, जादू-टोना इत्यादि अनिष्ट शक्तियों के प्रभाव के कारण नहीं हो पाता। हनुमानजी की उपासना करने से ये कष्ट दूर हो जाते हैं एवं उनका विवाह संभव हो जाता है।
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